Kanyakumari गंभीर राजनीतिक संघर्ष का केंद्र, चार चुनाव से हर बार बदलते रहे हैं सांसद

कांग्रेस ने 13 बार जीती यह सीट
कन्याकुमारी 2008 से पहले नागरकोइल सीट के रूप में जानी जाती थी। प्रदेश के पहले सीएम के. कामराज नाडार यहीं से दो बार लोकसभा पहुंचे। 1977 को अपवाद स्वरूप छोड़ दें, तो 1951 से 1991 तक यह सीट 13 बार कांग्रेस ने जीती। 1977 में कांग्रेस से टूटकर बने आईएनसीओ से कुमारी अनंतन ने कांग्रेस के एम. मोसेस को हराया। 1996 में यह सीट कांग्रेस से टूटकर बनी तमिल मनीला कांग्रेस (मूपनार) के एन. डेनिस ने जीती। इसके बाद यहां कभी कांग्रेस की वापसी नहीं हुई। 1998 में डेनिस, 1999 में पोन राधाकृष्णन, 2004 में सीपीएम के एवी बेल्लारमिन जीते। 2008 में सीट को कन्याकुमारी नाम दिया गया। नए नाम से 2009 में हुए चुनाव में डीएमके के जे. हेलन डेविडसन ने जीत हासिल की। 2014 में भाजपा की वापसी हुई जब पोन राधाकृष्णन ने जीत हासिल की।
मुकाबला भाजपा-भाजपा प्रदेशाध्यक्ष के चाचा में
भाजपा से फिर पोन राधाकृष्णन मैदान में हैं, तो डीएमके-कांग्रेस गठबंधन ने कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष एच वसंतकुमार को मुकाबले में उतारा है। वसंतकुमार भाजपा की प्रदेश अध्यक्ष डॉ. तमिलीसाई सुंदराजन के चाचा भी है। उनके लिए यह मुकाबला पिछली हार का हिसाब चुकाने का मौका है।
अल्पसंख्यक बंटे तो भाजपा को फायदा
इस सीट पर 48.6 प्रतिशत आबादी हिंदू और 46.8 प्रतिशत ईसाई धर्म मानने वाली है। बाकी मुख्यत: मुस्लिम हैं। भाजपा की यहां दो बार जीत की प्रमुख वजह अल्पसंख्यकों के वोट बंटने को माना जाता है। यहां की बड़ी आबादी मछली से जुड़े कारोबार पर निर्भर है। इनमें अधिकतर मछुआरे हैं। यहां इनायम क्षेत्र में सांसद द्वारा कंटेनर टर्मिनल बनाया जा रहा, जिससे इस कारोबार को खतरा माना जा रहा है। मछुआरों ने इसका कड़ा विरोध किया है।