RTI कानून का हाल : सरकार का यह कदम पारदर्शिता से मुंह चुराने और कानून को कमजोर करने जैसा है
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भ्रष्टाचार पर देशव्यापी वार के बीच केंद्रीय बजट में आरटीआई के मद में बढ़ोतरी के बजाय साढ़े तीन करोड़ रुपये की कटौती की गई। सरकार का यह कदम पारदर्शिता से मुंह चुराने और इस कानून को कमजोर करने जैसा है। पांच वर्षों में कभी कानून में संशोधन करने, तो कभी सूचना प्राप्त करने के शब्दों को सीमित करने की कोशिश कर आरटीआई की धार कुंद करने के प्रयास हुए हैं। यह स्थिति तब है, जब प्रधानमंत्री आरटीआई को सरकार की नीति तक बदलने का हथियार बता चुके हैं।
आरटीआई यानी सूचना का अधिकार कानून देश में अब तक के सबसे लोकप्रिय, कारगर और प्रभावी कानूनों में से एक है। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने वाले जनता के इस हथियार के इस्तेमाल से कई बार सरकारी कार्य प्रणाली की कलई खुल चुकी है। तमाम छोटे-बड़े घोटालों को आम करने में इस कानून की अहम भूमिका रही है। स्वच्छ एवं पारदर्शी लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए सूचना का अधिकार एक ऐसी व्यवस्था है, जो देश में अभी पूरी तरह विकसित नहीं हो पाई है। सत्ता में बैठे लोगों द्वारा इस कानून को कुंद करने की कोशिश बताती है कि यह उन्हें रास नहीं आ रहा है।
ऐसे में, आम लोगों का हथियार बन चुके इस कानून के मूल स्वरूप को बचाए रखना और लोगों में इस कानून के इस्तेमाल की बेहतर समझ बनाना एक बड़ी चुनौती है। दरअसल हमारा मौजूदा शासन और प्रशासनिक ढांचा औपनिवेशिक कानून की नींव पर खड़ा है, जिसमें नागरिक कानून की सारी समझ गोपनीयता कानून से छनकर आती थी। चूंकि यह कानून नागरिक साझेदारी को मजबूती देता है, इसलिए इसे सरकारी कामकाज का विरोधी साबित किया जाता है।
बेशक सिविल सोसाइटी और जन दबाव के तहत इस कानून को वजूद में लाया गया, पर जब इसका असर सरकारों की जवाबदेही तय करने लगा, तो इसे नियंत्रित करने के तरीके खोजे जाने लगे। इस कानून ने जनता को एक ऐसा औजार थमा दिया, जिसके जरिये वह सत्ता तंत्र में पसरे भ्रष्टाचार को उजागर कर सकती है और भ्रष्ट राजनेताओं को बेनकाब कर सकती है। भ्रष्टाचार का दायरा केवल सरकारों तक सीमित नहीं है, विपक्षी नेताओं पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं।
राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव का ही नतीजा है कि इस कानून के अस्तित्व में आने के चौदह साल बाद भी सरकारी कार्यालयों में आसानी से सूचना देने की प्रवृत्ति विकसित नहीं हो पाई है। कहीं आवेदन लंबित हैं, तो कहीं आधी-अधूरी सूचनाएं दी जाती हैं। राज्य सूचना आयोगों में अपीलों की तादाद लगातार बढ़ रही है। इस मामले में उत्तर प्रदेश की स्थिति तो बहुत खराब है। यहां राज्य सूचना आयोग में पचास हजार मामले लंबित हैं। न तो सूचना देने में तीस दिन की समयसीमा का पालन किया जा रहा है और न ही देरी का कारण बताया जा रहा है।
सूचना के अधिकार कानून के अमल में अगर ऐसी ही उदासीनता जारी रही, तो यह कानून निष्प्रभावी हो जाएगा और अभी घपलों-घोटालों से संबंधित जो जानकारियां मिल रही हैं, वे नहीं मिलेंगी। सरकार की प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस कानून के जरिये प्रशासनिक पारदर्शिता का लाभ उठा सकें। लिहाजा सूचना देने में हीला-हवाली करने पर सख्त दंड देने की व्यवस्था होनी चाहिए। सरकार का इरादा अगर साफ है, तो भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कदम उठाने में उसे गुरेज नहीं करना चाहिए।