दुर्भाग्यपूर्ण: भ्रष्टाचार के आरोप का दाग धोने के लिए एक जज को 18 साल लड़नी पड़ी अदालती लड़ाई
खास बातें
- लंबी अदालती लड़ाई के बाद मिला न्याय, पर रिटायरमेंट की उम्र के बाद
- सुप्रीम कोर्ट ने दिया पूर्व सिविल जज को 20 लाख मुआवजा देने का आदेश
कानूनी प्रक्रिया में लेटलतीफी की कहानी आम है, लेकिन जब किसी जज को खुद इसका शिकार होना पड़े तो चर्चा स्वाभाविक है। गुजरात के एक सिविल जज को खुद पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप का दाग धोने के लिए करीब 18 वर्ष की अदालती लड़ाई लड़नी पड़ी। जब उन्हें न्याय मिला तो उनकी रिटायरमेंट की उम्र ही निकल चुकी थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने जज को 20 लाख रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया है। सिविल जज योगेश एम व्यास के साथ हुए इस अन्याय को सुप्रीम कोर्ट ने बेहद दुर्भाग्यपूर्ण बताया। जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा, कोर्ट न तो उनकी खोई प्रतिष्ठा लौटा सकता और न उन्हें नौकरी पर बहाल कर सकता है। लिहाजा उन्हें छह महीने के अंदर 20 लाख रुपये मुआवजा देेने का आदेश देकर उनसे हुई ज्यादती की भरपाई करने की कोशिश की है।
1981 में न्यायिक सेवा में आए व्यास जून 1992 से जून 1994 के बीच गुजरात के विसनगर में सिविल जज थे। इसी दौरान उन पर कानून को ताक पर रखकर सात जमानत आदेश पारित करने का आरोप लगा।
जांच कमेटी ने कहा कि व्यास के खिलाफ भ्रष्टाचार के साक्ष्य नहीं मिले, लेकिन उन्होंने कुछ मामलों में अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर काम किया। जांच अधिकारी ने यह भी कहा कि आशंका है कि वह कुछ भ्रष्टाचार में लिप्त रहे हों। इसके बाद व्यास को अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी गई।
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में दी चुनौती
व्यास ने रिपोर्ट को हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने उन्हें बेगुनाह करार दिया, लेकिन उनके 53 वर्ष के होने और आठ वर्ष से नौकरी में न होने के कारण कहा कि उनकी बहाली नहीं हो सकती। इस पर व्यास 2010 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। नौ वर्ष बाद शीर्ष अदालत ने इस मामले में फैसला सुनाया है।