
- सुप्रीम कोर्ट की कर्नाटक विधायकों के निर्णय में राजनीतिक परिदृश्य पर टिप्पणी
- सर्वोच्च अदालच ने कहा, मतभेद और दलबदल ये दोनों अलग-अलग बातें हैं
- अध्यक्ष तटस्थ नहीं होंगे तो जनता का विश्वास खो देंगे : सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक के विधायकों के मामले में अपना निर्णय समाज विज्ञान के सम्मानित प्रोफेसर आंद्रे बेताई के इन शब्दों से शुरू किया। कोर्ट ने लिखा, ‘हमारे संविधान निर्माताओं ने लोगों को सांविधानिक मूल्यों को बनाए रखने की जिम्मेदारी सौंपी है, लेकिन प्रश्न है कि हम अपने इस कर्तव्य को निभाने में कितने सफल हुए? लोकतंत्र और सांविधानिक जिम्मेदारियों को कितना निभा सके?’
कोर्ट ने कहा, मतभेद और दलबदल ये दोनों अलग-अलग बातें हैं। इन्हें अलग साबित करके ही लोकतांत्रिक मूल्यों को अन्य लोकतांत्रिक विचारों के साथ संतुलित रखा जा सकता है। कोर्ट ने विधानसभा अध्यक्ष के परिप्रेक्ष्य में कहा कि उनकी भूमिका इस संतुलन को बनाने में महत्वपूर्ण है। अपनी भूमिका पर कहा, कोर्ट का काम केवल यह तय करना है कि क्या अध्यक्ष ने तटस्थ सदस्य के रूप में अपने पद की परंपरा के तहत संविधान का समर्थन किया?
सांविधानिक पदों पर बैठने वालों के आचरण पर खेद
कोर्ट ने अपने निर्णय के अंत में कहा कि पीठ को सांविधानिक पदों पर बैठे अधिकारियों द्वारा मौजूदा हालात में किए गए व्यवहार पर खेद है। संविधान को उनसे और उनके आचरण से अपेक्षा होती है कि वे संविधानवाद और संविधानिक नैतिकता को बनाए रखेंगे। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे राजनीतिक दबावों और नैतिकताओं के बीच संदेह के हालात पैदा नहीं होने देंगे।अध्यक्ष तटस्थ नहीं होंगे तो जनता का विश्वास खो देंगे
कोर्ट ने यह भी कहा कि ‘केवल संविधान की रक्षा और उसकी अक्षुण्णता की शपथ लेना काफी नहीं है। बल्कि सांविधानिक मूल्यों को रोजमर्रा के कामों में शामिल करने की अपेक्षा हमारे महान संविधान ने की है। सदस्यों को पूरे सत्र के लिए अयोग्य घोषित करने की अध्यक्ष की शक्ति को नकारते हुए हम खुद को कुछ टिप्पणियां करने से रोक रहे हैं। अध्यक्ष से अपेक्षा होती है कि वह स्वतंत्रता से काम करे, दी गई जिम्मेदारियों को निष्ठा से निभाए। अगर अध्यक्ष ही खुद को राजनीतिक दल से विमुक्त नहीं कर पाएगा और तटस्थता की भावना के खिलाफ काम करेगा, तो उसमें लोगों का विश्वास नहीं पैदा हो सकता।’विधायकों की खरीदफरोख्त हो रही, दल भ्रष्टाचार कर रहे, संसद उठाए कदम
राजनीतिक हालात पर कोर्ट ने कहा, यह चलन बढ़ा है कि सदन के अध्यक्ष तटस्थता के सांविधानिक कर्तव्य के खिलाफ काम कर रहे हैं। राजनीतिक दल विधायकों की खरीद-फरोख्त कर रहे हैं और भ्रष्ट गतिविधियों में लिप्त मिल रहे हैं। इसकी वजह से नागरिकों को स्थायी सरकार नहीं मिल रही है। ऐसे समय में संसद को कानून मजबूत करने की जरूरत है। ऐसा करके गैर-लोकतांत्रिक गतिविधियों को रोका जा सकेगा।इन प्रश्नों पर विचार कर दिया निर्णय
1. क्या कर्नाटक विधानसभा अध्यक्ष द्वारा दिए गए आदेश को चुनौती देती याचिका अनुच्छेद 32 के तहत सुने जाने योग्य है?सुप्रीम कोर्ट : याचीगणों ने मेढ़ककूद लगाई, विशेष परिस्थितियों में सुन रहे हैं
डॉ. अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान की आत्मा और हृदय कहा है और सबसे महत्वपूर्ण बताया है। इसके तहत व्यक्ति न्याय के लिए सुप्रीम की शरण ले सकता है। संविधान ने इस अनुच्छेद के तहत सुप्रीम कोर्ट को जो क्षेत्राधिकार दिया, उसे संसद का कोई अधिनियम वापस नहीं ले सकता।
इस सबके बावजूद यह कहना होगा कि याचीगणों ने न्यायिक पदानुक्रम का पालन न करते हुए मेढ़क कूद लगाई है। अयोग्यता के आदेशों को पहले हाईकोर्ट में चुनौती देनी होती है। सुप्रीम कोर्ट उन्हें इसलिए सुन रही है क्योंकि मामले में कुछ विशिष्ट तथ्य जुड़े हैं।
मामले में अंतरिम आदेश पारित किए गए थे, दो दिन विस्तृत बहस भी हुई। यह समस्त कार्यवाही हाईकोर्ट में दोहरानी न पड़े, इसलिए इन याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट में सुना जा रहा है।
2. क्या अध्यक्ष द्वारा विधायकों के इस्तीफे अस्वीकार कर उन्हें अयोग्य करार देना संविधान के अनुसार किया गया?
सुप्रीम कोर्ट : अध्यक्ष की संतुष्टि न्यायिक पुनर्विचार के दायरे में
मौजूदा मामले में 17 याचियों में से 15 ने अपना इस्तीफा विधानसभा को दिया था, अध्यक्ष ने इन्हें अलग अलग तारीखों को यह कहते हुए नकारा कि इस्तीफे स्वेच्छा से नहीं दी दिए गए, न वास्तविक हैं। प्रतिपक्ष का कहना है कि कोर्ट इस सवाल पर विचार नहीं कर सकती, क्योंकि इस्तीफा स्वीकारना या नकारना अध्यक्ष की व्यक्तिपरक संतुष्टि पर निर्भर होता है।
उनके निर्णय पर न्यायिक पुनर्विचार नहीं हो सकता। लेकिन कोर्ट इस पर राजी नहीं है। अध्यक्ष का विवेक अप्रतिबंधित नहीं कहा जा सकता। इस्तीफे को तभी नकारा जा सकता है जब अध्यक्ष इस बात पर संतुष्ट हो कि वह स्वेच्छा से नहीं दिया गया, या वास्तविक नहीं है। स्वेच्छा यानी इस्तीफा दबाव में या जबरन नहीं लिखाया गया है और वास्तविकता यानी वह किसी तीसरे पक्ष द्वारा नहीं लिखा गया है।
इसे अध्यक्ष के कहने भर से नहीं स्वीकारा जा सकता, कोई वस्तुनिष्ठ साक्ष्य होना चाहिए। सदस्य इस्तीफा दे तो अध्यक्ष को संविधान और सदन के तय नियमों के तहत तत्काल जांच करवानी चाहिए कि क्या सदस्य सच में सदस्यता छोड़ना चाहता है? अध्यक्ष की संतुष्टि न्यायिक पुनर्विचार के दायरे में है।
3. इस्तीफे का अधिकार है?
सुप्रीम कोर्ट : इस्तीफे के उद्देश्य की जांच करने का आधार अध्यक्ष को नहीं
इस्तीफा देना सदस्य का अधिकार है, इसे कोई कानून रोक नहीं सकता। वजह अच्छी या बुरी हो सकती है। सदस्य को पद पर बने रहने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। लेकिन 33वें संविधान संशोधन से यह निर्धारित किया गया है कि केवल अध्यक्ष को इस्तीफा पत्र लिखने से सीट खाली नहीं हो जाती। इसे अध्यक्ष को स्वीकारना होता है।
मौजूदा मामले में अध्यक्ष की जांच के अनुसार ‘इस्तीफे का उद्देश्य’ राजनीतिक दबाव था। इसे कोर्ट स्वीकार नहीं कर सकती, संविधान अध्यक्ष को इस्तीफे के उद्देश्य की जांच करने की अनुमति नहीं देता। अगर राजनीतिक दबाव था भी, तो भी यह स्वेच्छा करार दिया जाएगा। सदस्यों ने बिना शक स्वेच्छा से और वास्तविक इस्तीफे देने की बात कोर्ट व अध्यक्ष के समक्ष स्वीकारी है।
4. इस्तीफे के बाद अयोग्य करार देने की कार्रवाई वैध है?
सुप्रीम कोर्ट : दलबदल में अयोग्य करार दिया जा रहा सदस्य इस्तीफा नहीं देने लगेगा?
91वां संशोधन करके भारतीय राजनीति में दलबदल को रोकने प्रयास किया गया। भारत ऐसा करने वाला पहला देश था, जिसके बाद कनाडा, इजराइल जैसे देशों ने भी ऐसे कानून बनाए। सदस्यों ने अपनी पार्टी से इस्तीफे दे दिए थे। ऐसे में अगर हम यह कहते हैं कि इस्तीफा देने के बाद सदस्य को अयोग्य करार देने की कार्रवाई गैर-जरूरी है तो फिर भी कोई सदस्य जो अयोग्य होने की कगार पर होगा, तत्काल इस्तीफा देकर बच जाएगा।
याची का यह कहना कि इस्तीफे के बाद अयोग्य करार देने की कार्रवाई जारी नहीं रखी जा सकती, अस्वीकार है। सदस्य ने सदन से इस्तीफा दे दिया है, तब भी अयोग्यता के कार्य पर की जा रही कार्रवाई रोकी नहीं जा सकती। अध्यक्ष द्वारा सदस्यों को अयोग्य घोषत करने की कार्रवाई वैध मानी जाएगी।
5. क्या अध्यक्ष पूरे सदन के कार्यकाल के लिए सदस्य को अयोग्य घोषित कर सकता है?
सुप्रीम कोर्ट : कठोरता बरती, तो वैध मतभेद के मामलों में बुरा असर होगा
अध्यक्ष ने सदस्यों को कर्नाटक की 15वीं विधानसभा के पूरे कार्यकाल के अयोग्य घोषित किया है। भारत के चुनाव आयोग द्वारा भी बताया गया कि आयोग कुछ मामलों में व्यक्तियों को अगले चुनाव में भाग लेने से अयोग्य घोषित करता है। लेकिन विभिन्न अनुच्छेद के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अध्यक्ष के पास किसी सदस्य को पूरे कार्यकाल के चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित करने की शक्ति नहीं है। संविधान इस प्रकार की शक्ति नहीं देता है। इस प्रकार के कड़े कदम उठाए जाते रहे तो वैध मतभेदों के मामले में भी बुरा असर हो सकता है।