भाजपा अध्यक्ष अमित शाह आखिरी समय में भी बाजी पलटने के लिए जाने जाते हैं। इस समय वह उ.प्र. में बाजी पलटने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उप मुख्यमंत्री केशव मोर्य, दिनेश शर्मा, भाजपा अध्यक्ष महेन्द्र नाथ पांडे समेत सभी रणनीतिकारों को लगातार जीत का मंत्र दे रहे हैं। वह 11 अप्रैल को पहले चरण के मतदान वाली रात को लखनऊ में ही थे और मैराथन बैठक में व्यस्त थे। शाह की पूरी कोशिश जातिगत राजनीतिक धरातल पर खड़े उ.प्र. में अधिक से अधिक यादव को छोड़कर अन्य पिछड़ी जातियों, जाटव को छोड़कर अन्य अनुसूचित जातियों, जनजातियों पर टिकी है। वह कोईरी, कुर्मी, नाई, कोहार, कुम्हार, बढ़ई, नोनिया, केवट, मुशहर, निषाद सबको साथ लेकर चलने की राजनीति को बल देने में जुटे हैं। इसी के तरह पश्चिमी उ.प्र. में भी उनका जोर इसी पर है। वह जाट को भी इसमें प्रमुखता से शामिल कर रहे हैं। बताते हैं शाह का यह दांव चला तो उ.प्र. में भाजपा 2019 में भी चौकाने वाले नतीजे लाएगी। टीम भाजपा तो कह रही है कि पहले चरण की आठ में से बस दो पर संदेह है। बाकी आठ सीट भाजपा की झोली में है। फिर प्रियंका को लेकर क्यों बढ़ रहा है ब्लड प्रेशर
भाजपा के रणनीतिकार प्रियंका गांधी वाड्रा को कोई भाव नहीं दे रहे हैं। यही स्थिति सपा-गठबंधन में भी है। अखिलेश सरकार के मंत्री रहे सपा के रणनीतिकार के अनुसार प्रियंका का जादू बस अमेठी-रायबरेली में है। बाकी जगह भीड़ बस उन्हें देखने आती है। उ.प्र. सरकार के एक केन्द्रीय मंत्री का भी यही मानना है। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेन्द्र नाथ पांडे के टीम के सदस्य का कहना है कि मीडिया को छोड़कर कोई प्रियंका को भाव नहीं देता। वहीं प्रियंका वाराणसी से बलिया तक फिर नाव में बैठक गंगा यात्रा करने वाली हैं। बताते हैं उनकी मोटरबोट यात्रा को बेअसर करने के लिए भाजपा ने स्थानीय स्तर पर कार्यक्रम की रूपरेखा देना शुरू कर दिया है। बताते हैं कि जहां भी प्रियंका जा रही हैं, अपनी चर्चा के अनुरुप भीड़ ला रही हैं। भीड़ ही नहीं वह कांग्रेसियों को उत्साह में भर देती है। प्रियंका का सरल तरीके से संवाद लोगों को प्रियंका मय बना दे रहा है। इससे भाजपा और सपा-बसपा गठबंधन को अपना वोट कटने की चिंता सताने लगती है। यह चिंता भाजपा को थोड़ा ज्यादा होने लगती है, लिहाजा इंतजाम करने के बाद भी ब्लड प्रेशर बढ़ जा रहा है।
बिना भीड़ के कैसे चढ़ेगा मोदी रंग
राहुल गांधी जब चुनाव मंच पर चढ़ते हैं तो उनके गाल पर गड्ढा साफ उभर आता है। कांग्रेसी इसका कारण जनसभा में उमड़ रही भीड़ को मानते हैं। बताते हैं जब राहुल के साथ कहीं प्रियंका होती हैं तो भीड़ दो गुना उत्साह दे देती है। जबकि 2014 में कांग्रेस अध्यक्ष ऐसा मंजर देखने के लिए तरस कर रह जा रहे थे। बड़ी कोशिश के बाद भी मैदान छोटा तलाशा जाता था।
यह तो हो गई कांग्रेस की बात, लेकिन भीड़ को लेकर अब भाजपा की चिंता बढ़ रही है। उसे लग रहा है कि जब जनसभा में भीड़ नहीं आएगी तो मोदी का जादू कैसे चलेगा? दरअसल 2014 के मुकाबले भीड़ काफी घट गई है। 2014 के आम चुनाव की रैली में मोदी की जनसभा में बड़ा मैदान छोटा पड़ जाता था। लोग बिन बुलाए और खुद बड़ी संख्या में आते थे। जबकि हर जनसभा को पहले से काफी आधुनिक, डिजिटल और शानदार रूप दिया जा रहा है। बताते हैं कि टीम अमित शाह ने भी इस पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया है। वरिष्ठ सूत्र की माने तो मोदी और शाह की रैलियों को लेकर आगे विशेष ध्यान देने की योजना है, ताकि भीड़ तंत्र के जरिए मतदाताओं में आकर्षण बढ़ाया जा सके।
बिन पासवान के छोरा क्या जला पाएगा चिराग?
राम विलास पासवान ने भले बेटे चिराग के हाथ में पार्टी की लगाम दे दी है, लेकिन जमुई की जनता में वह स्पार्क नहीं दिख रहा है। जमुई में तीन सप्ताह तक मैराथन चुनावी प्रचार करके आए सूत्र की माने तो बिहार की जनता को राम विलास पासवान में अपनापन दिखता है। चिराग युवा हैं, उत्साही हैं, लेकिन सबके बावजूद राम विलासपान की तरह जमीनी नहीं है। बताते हैं कि इस चिंता राम विलास पासवान को भी हो रही है। वह खुद जमुई से लगातार रिपोर्ट ले रहे हैं। पासवान इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। उन्हें भाजपा ने असम से जून 2019 में राज्यसभा सीट देने का भरोसा दिया है। इसलिए पासवान चाहते हैं कि पुत्र चिराग हाजीपुर से उनकी विरासत को संभाल लें। हाजीपुर पासवान की सीट है। यहां उनका अपना जनाधार है। चिराग यहां से भी चुनाव में उतरेंगे तो जीत की गारंटी हो जाएगी। हालांकि अभी सब विचार के स्तर पर है।
पीके या सिंह, कौन है नीतीश कुमार का दुलरुआ ?
पीके यानी प्रशांत किशोर। जद(यू) में शामिल होने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सारथी कहे जा रहे थे, लेकिन खबर है कि आरसीपी सिंह ने उनको पीछे छोड़ दिया है। बिहार के चुनाव और सामाजिक समीकरण से लेकर भाजपा से तालमेल बनाने की कला में आरसीपी सिंह कहीं ज्यादा पारंगत हैं। वह नीतीश कुमार की नब्ज को समझते हैं और उसी को ध्यान में रखकर जमीन तैयार करते हैं। इसके उलट प्रशांत किशोर ज्यादा सिद्धांतिक हो जाते हैं। बताते हैं आरसीपी सिंह ने अपनी नजदीकी बनाए रखी है। बिहार में लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान और उम्मीदवारों के मामले में भी आरसीपी की सलाह को नीतीश ने तवज्जो दी है। इसके सामानांतर प्रशांत किशोर की निगाह आंध्र प्रदेश में चुनाव पर है। वह जगन मोहन रेड्डी को लेकर उत्साहित हैं। इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भाजपा अद्यक्ष अमित शाह के भी संपर्क में हैं। पीके के करीबी कहते हैं कि कुल मिलाकर मामला भविष्य को देखकर चलने का है और इसे प्रशांत किशोर से अच्छा कम लोग समझ पाएंगे।
ममता बनर्जी की निगाह चिडिय़ा की आंखपर
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अर्जुन की भूमिका में हैं। उनकी निगाह चिडिय़ा की एक आंख पर टिक गई है। अभी वह अपने पुराने करीबी सुधीन्द्र कुलकर्णी की बड़ी-बड़ी बातों पर भी कम ध्यान दे रही हैं। ममता ने बड़े तरीके से तृणमूल कांग्रेस को लोकसभा चुनाव 2019 में मनमाफिक मोड़ पर लाकर खड़ा किया है। उनके करीबी मानते हैं कि जिस तरह से आइरन लेडी ने सीबीआई अधिकारियों से पंगा मोल लिया, उससे काफी राह आसान हो गई। कांग्रेस, वामदल भी अकेले चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसे में तृणमूल नेत्री को लग रहा है उनकी पार्टी को चुनाव नतीजे में कोई नुकसान वाली खबर सुनने को नहीं मिलेगी। उनके रणनीतिकार भी 35 सीट जीतने का दावा कर रहे हैं।
कौन बनाएगा सरकार?
2019 में कौन सरकार बनाएगा? नया प्रधानमंत्री भी अगले महीने ही मिलना है। क्या नरेन्द्र मोदी फिर संभालेंगे सत्ता की चॉबी? बड़ा सवाल है। भाजपा के केन्द्र सरकार के मंत्री कहते हैं, भाजपा सरकार बनाएगी। चुनाव लड़ रहे उ.प्र. के आधा दर्जन से अधिक प्रत्याशियों को भाजपा की सरकार का ही भरोसा है, भले ही प्रधानमंत्री का चेहरा कोई और हो। प्रधानमंत्री की रेस में नितिन गड़करी की चर्चा थोड़ा कम हुई है। वहीं उ.प्र. में और देश में केन्द्रीय गृहमंत्री के प्रचार को देखते हुए उनका महत्व बढ़ा है। वैसे राजनीति में इस तरह के समीकरण बनते-बिगड़ते रहते हैं। लेकिन अंदरखाने से खबर है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, कांग्रेस(वाईएसआर) के नेता जगन मोहन रेड्डी, डीएमके के एमके स्टालिन से रिश्ता अच्छी वेवलेंथ पर लेकर चल रहे हैं। टीआरएस के के. चंद्रशेखर राव को लेकर भाजपा पहले ही गुणा-गणित कर चुकी है। मायावती की कांग्रेस से खटास बढ़ रही है। भाजपा के प्रति बयानों से थोड़ा सॉफ्ट हैं। इसके अलावा तमाम छोटे-छोटे दल पर निगाह है। जाने चुनाव बाद कौन सी स्थिति आए?
यूपीए के कोने में आते हैं। यूपीए चेयरपर्सन पहले इस चुनाव की तुलना 2004 के चुनाव से कर चुकी हैं। शरद पवार को 1989 या 1996 का चुनाव लग रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी केवल भाजपा को सत्ता से हटाने में लगे हैं।
गठबंधन पर क्यों अड़े हैं राहुल गांधी?
गठबंधन को लेकर कांग्रेस ने अपने रुख में बड़ा बदलाव किया है। पार्टी अब समझौतावादी रुख को ना कह चुकी है। दिल्ली में शीला दीक्षित की ना भी इसी का हिस्सा था। शरद पवार के साथ चर्चा में राहुल गांधी ने लक्ष्यदीप को लेकर उनकी बात नहीं मानी। बिहार में कांग्रेस ने अपना कड़ा रुख बनाए रखा। अब बारी दिल्ली की है। कांग्रेस का साफ कहना है कि पहले गठबंधन की बात दिल्ली की हो। दिल्ली में कांग्रेस को तीन सीट चाहिए। आम आदमी पार्टी के नेता चाहते हैं कि पहले हरियाणा को लेकर कुछ तय हो जाए। पंजाब में गठबंधन को लेकर कैप्टन अमरिंदर सिंह का रुख काफी सख्त है। वह आम आदमी पार्टी के साथ तालमेल के पक्ष में ही नहीं है। कुल मिलाकर स्थिति साफ है। यदि तीन सीट पर कांग्रेस और चार सीट पर आम आदमी पार्टी लडऩे को तैयार है तो गठबंधन होगा। बताते हैं इस तरह की संभावना को देखकर ही भाजपा ने अभी भी अपने उम्मीदवार घोषित नहीं किए हैं। वहीं कांग्रेस ने हर जगह गठबंधन का फैसला कांग्रेस अध्यक्ष के ऊपर छोड़ दिया है।