Terrorist organizations के ये पसंदीदा एप सुरक्षा एजेंसियों को दे रहे हैं बड़ी चुनौती Bharat Rajneeti

प्रतीकात्मक तस्वीर
भारत में आतंकवादियों ने व्यापक स्तर पर अपने मंसूबों को अंजाम देने के लिए अब इंटरनेट को सबसे बड़ा हथियार बना लिया है। इस्लामिक स्टेट हो या कश्मीर में लंबे समय से हमले कर रहे पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठन, ये सभी अब इंटरनेट के माध्यम से अपना विस्तार करने में लगे हैं। सुरक्षा एजेंसियों को यह बात मालूम है कि आतंकवादी संगठन इंटरनेट सुविधाएं, जैसे कॉलिंग कार्ड, टेलिग्राम, सिग्नल, डार्क वेब, किक, व्हाट्सऐप वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क (वीपीएन), आई-कॉलमोर, मार्कबुक प्लाजमा, मेरीगोल्ड और द एम्नेसिक इनकॉग्निटो लाइव सिस्टम (टेल्स) जैसे एप का इस्तेमाल कर रहे हैं। इन एप को पकड़ पाना सुरक्षा एजेंसियों के लिए आसान नहीं है। अगर कोई एजेंसी किसी एप का पता लगा लेती है तो आतंकवादी तुरंत दूसरा एप या कॉलिंग कार्ड हासिल कर लेते हैं।
सुरक्षा एजेंसियों के एक बड़े अधिकारी ने यह खुलासा करते हुए बताया कि इंटरनेट के जरिए आतंकवादियों द्वारा अपने संगठन का विस्तार करना, यह सब दो-तीन साल पहले ही शुरु हुआ है। खासतौर पर, आईएसआईएस भारत में अपने पांव पसारने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहा है। प्रचार से लेकर भर्ती प्रक्रिया सब इंटरनेट पर चल रही है। धन जुटाना, ट्रेनिंग और टार्गेट, सब कुछ इंटरनेट के जरिए हो रहा है।
पिछले दिनों श्रीलंका में ईस्टर के मौके जो हमले किए गए, उनका सिलसिलेवार होमवर्क 'इंटरनेट' के जरिए ही पूरा किया गया था। आईएस ने हमलों की रणनीति तैयार करने से लेकर उन्हें अंजाम देने तक इंटरनेट का भरपूर इस्तेमाल किया। अलग-अलग समय पर टेलीग्राम, किक, सिग्नल या वीपीएन जैसी सेवाओं की मदद ली गई। नतीजा, पुलिस या सुरक्षा बल उन तक नहीं पहुंच सके और वे हमलों को अंजाम देने में कामयाब हो गए। भारत में केरल और दूसरे राज्यों में आईएस की जो गतिविधियां देखी गई हैं, वे सब इंटरनेट पर ही संचालित हो रही हैं।
आईएस ने अपने प्रचार के लिए पहले सोशल मीडिया का खूब इस्तेमाल किया, लेकिन फेसबुक, ट्विटर या व्हाट्सऐप पर वे कहीं न कहीं पकड़े गए। हालांकि इस संगठन से जुड़े लोगों ने एक के बाद एक सैंकड़ों फर्जी अकाउंट बना लिए। एनआईए के एक अधिकारी का मानना है कि आतंकी संगठन जिस तरह से इंटरनेट को बड़ा हथियार बनाकर आगे बढ़ रहे हैं, इसके लिए सरकार को इंटरनेट सेवा मुहैया कराने वाली कंपनियों और एप निर्माताओं से बात करनी होगी। जांच एजेंसियों को इन संगठनों तक पहुंचने में कड़ी मशक्कत का सामना करना पड़ रहा है।
इस वजह से अदालत में कमजोर पड़ जाता है केस
जांच एजेंसी के एक अधिकारी बताते हैं, मान लो कि आतंकी संगठनों का कोई सदस्य पकड़ में आ गया। उसके पास से कुछ बरामद हुआ तो ठीक, अन्यथा पूछताछ के दौरान वह अपने साथियों की या सामान की जानकारी दे देता है। उसी आधार पर जब केस की गहराई से पड़ताल शुरु होती है तो उसके मैसेज, वीडियो कॉल या बातचीत, सब नष्ट हो चुकी होती है। वजह, वे आपस में बातचीत करने के लिए इंटरनेट की ऐसी सुविधाओं का इस्तेमाल करते हैं, जो सुरक्षा एजेंसियों की पकड़ से बाहर हैं। इसी वजह से चीन, रुस और दूसरे कई देशों ने कुछ विशेष किस्म के एप या सेवाओं पर रोक लगा रखी है।
हमारे देश में सुरक्षा एजेंसियों को इनकी आपसी बातचीत का ब्यौरा नहीं मिल पाता, नतीजा अदालत में केस कमजोर पड़ जाता है। आईएसआईएस के अलावा कश्मीर में मौजूद आतंकी संगठन भी इंटरनेट का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करने लगे हैं। जांच एजेंसियों को ऐसे सबूत मिले हैं, जिनमें दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग, आईएसआई, आतंकी संगठन और कश्मीर के अलगाववादी संगठनों के बीच जो बातचीत हुई है, उसके लिए इंटरनेट सेवाओं की मदद ली गई है। खासतौर पर, कॉलिंग कार्ड के जरिए ये लोग आपस में जुड़े रहे हैं।सरकार अपने दबाव से इंटरनेट पर कोई आपत्तिजनक सामग्री हटवा देती है तो उसका फायदा नहीं होता। चंद मिनटों में हजारों फर्जी अकाउंट्स बन जाते हैं।
आतंकी संगठनों के इन पंसदीदा एप्स का नहीं मिल रहा कोई तोड़
सुरक्षा एजेंसी के मुताबिक, आतंकी संगठन कॉलिंग कार्ड के जरिए आपस में बातचीत करते हैं। यह कार्ड उन्हें खाड़ी के देशों से मिल जाता है। पिछले दिनों तिहाड़ जेल में एक ऐसा मामला सामने आ चुका है। पूछताछ में मालूम हुआ कि कॉलिंग कार्ड 10 डॉलर में मिल जाता है। इसके जरिए 1300 मिनट की फ्री बातचीत हो सकती है।पेशेवर अपराधी और ड्रग माफिया भी कॉलिंग कार्ड का इस्तेमाल करते रहे हैं। कॉलिंग कार्ड का एक नंबर होता है, जिसे अपनी पसंद के अनुसार बदल सकते हैं।यह पकड़ से बाहर है।
इसके अलावा टेलिग्राम, सिग्नल, डार्क वेब, किक, वीपीएन, आई-कॉलमोर, मार्कबुक प्लाजमा, मेरीगोल्ड और द एम्नेसिक इनकॉग्निटो लाइव सिस्टम जैसे कई एप मौजूद हैं।इनके द्वारा भेजा गया मैसेज कुछ देर बाद डिलीट हो जाता है। डार्क वेब भी एक वेबसाइट है, इसमें आईपी एड्रेस को खोज पाना और भेजने वाले या प्राप्त करने वाले तक पहुंचना बहुत मुश्किल होता है।
इन सभी एप में एनक्रिप्शन की सुविधा होती है। यानी दो लोगों के बीच हुई बातचीत को कोई तीसरा व्यक्ति न सुन सकता है और न ही देख सकता है। इस्लामिक स्टेट ने उक्त एप का सबसे ज्यादा प्रयोग किया है। जांच एजेंसियों के अधिकारी बताते हैं कि आतंकियों की इस तरकीब से निपटने के लिए कुछ तकनीकी उपायों पर काम चल रहा है।
हालांकि उन्होंने यह कह कर उस तकनीक का खुलासा नहीं कि इससे आतंकी सचेत हो सकते हैं। सरकार इस दिशा में दूरसंचार मंत्रालय, गूगल, एप निर्माताओं और इंटरनेट प्रोवाइडर कंपनियों के साथ बातचीत कर एक सिस्टम तैयार कर रही है। सरकार के सामने एक चुनौती यह भी है कि नए उपकरणों से लोगों की निजता का हनन न हो।इसके लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद ली जाएगी।