कश्मीर मुद्दे पर पाक के साथ क्यों है तुर्की, जानिए कैसे हैं भारत के साथ संबंध

Recep Tayyip Erdogan Narendra Modi - फोटो : bharat rajneeti
साल 2017। तुर्की के राष्ट्रपति रेचप तैय्यप एर्डोगन भारत की यात्रा पर थे। दोनों देशों ने पुराने विवादों को भूलकर आपसी संबंधों की नई इबारत लिखने की तैयारियां की थी। लेकिन, किसे पता था कि तुर्की अपने पाक प्रेम को छोड़ भारत की तरफदारी कभी नहीं करेगा। शायद, यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भौगोलिक रूप से महत्वपूर्ण इस देश की यात्रा आज तक नहीं की। हाल में ही तुर्की के राष्ट्रपति ने अपने सदाबहार दोस्त पाकिस्तान की मदद करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर में कथित तौर पर हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन मसला उठाया। एर्डोगन ने हद पार करते हुए कश्मीर की तुलना फिलिस्तीन से कर डाली।
बड़ी बात यह है कि भारत जैसे विशालतम लोकतंत्र को मानवाधिकारों का पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहे एर्डोगन तुर्की में एक कट्टर इस्लामिक तानाशाह के रूप में जाने जाते हैं। नरमपंथी इस्लामी दल एकेपी से ताल्लुक रखने वाले मौजूदा तुर्की राष्ट्रपति एर्डोगन कमाल अता तुर्क की कमालवाद विचारधारा को खत्म कर देश की धर्मनिरेपक्षता समाप्त करने में जुटे हुए हैं।
तुर्की में एर्डोगन की तुलना सद्दाम हुसैन, बशर अल असद और मुअम्मर गद्दाफी जैसे तानाशाहों से की जाती है। एक तरफ तो एर्डोगन यूरोपीय यूनियन में शामिल होना चाहते हैं, वहीं दूसरी तरफ तुर्की में ओटोमन साम्राज्य को स्थापित कर खुद को बड़े इस्लामिक लीडर के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं।
बड़ी बात यह है कि भारत जैसे विशालतम लोकतंत्र को मानवाधिकारों का पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहे एर्डोगन तुर्की में एक कट्टर इस्लामिक तानाशाह के रूप में जाने जाते हैं। नरमपंथी इस्लामी दल एकेपी से ताल्लुक रखने वाले मौजूदा तुर्की राष्ट्रपति एर्डोगन कमाल अता तुर्क की कमालवाद विचारधारा को खत्म कर देश की धर्मनिरेपक्षता समाप्त करने में जुटे हुए हैं।
तुर्की में एर्डोगन की तुलना सद्दाम हुसैन, बशर अल असद और मुअम्मर गद्दाफी जैसे तानाशाहों से की जाती है। एक तरफ तो एर्डोगन यूरोपीय यूनियन में शामिल होना चाहते हैं, वहीं दूसरी तरफ तुर्की में ओटोमन साम्राज्य को स्थापित कर खुद को बड़े इस्लामिक लीडर के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं।
तुर्क विचारधारा को छोड़ा पीछे
तुर्की के संस्थापक और पूर्व सैन्य अधिकारी मुस्तफा कमाल अता तुर्क को वहां के कट्टर धार्मिक मुस्लिम इस्लाम का दुश्मन मानते थे। प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्क साम्राज्य के पतन के बाद मुस्तफा ने तुर्की की आजादी की जंग लड़ी और 1923 में तुर्क गणराज्य का गठन किया और वह तुर्की के पहले राष्ट्रपति बने। वे ऐसे शासक थे, जिनके शासनकाल में तुर्की ने खूब उन्नति की और कट्टर इस्लामिक ओटोमन साम्राज्य को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में बदल दिया।
'युवा तुर्क' विशेषण का जन्म
मुस्तफा कमाल अता तुर्क का मानना था कि मौजूदा वक्त में अरबी सिद्धांतों को मानना तर्कसंगत नहीं है। जिसके चलते उन्हें युवा तुर्क भी कहा जाता था। आज भी भारत में प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष, आधुनिक और तार्किक प्रकृति वाले कई युवा नेताओं को युवा तुर्क कहा जाता है।
पाकिस्तान और तुर्की के संबंध
आजादी से पहले ब्रिटेन जैसे औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ लड़ाई में भारत और तुर्की के संबंध मित्रतापूर्ण रहे। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के समर्थकों ने संकटग्रस्त तुर्कों को चिकित्सा और वित्तीय सहायता प्रदान की। हालांकि, यह पारस्परिक सद्भावना 1947 के बाद दोनों देशों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों में परिवर्तित नहीं हुई।
1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद तुर्की का झुकाव पाकिस्तान की ओर ज्यादा हो गया। इस्लाम के नाम पर उदय हुए पाकिस्तान ने तुर्की के साथ दोस्ती में अपना उज्ज्वल भविष्य देखा। तुर्की में रह रहे कुर्द, अल्बानियाई और अरब जैसे तुर्को के बीच पाकिस्तान की स्वीकार्यता में इस्लाम में बड़ी भूमिका अदा की। मुस्तफा कमाल पाशा की धर्मनिरपेक्ष सोच के बावजूद पाकिस्तान और तुर्की के संबंध धार्मिक आधार पर ही मजबूत हुए।
1970 के दशक में नेकमेटिन एर्बाकन के नेतृत्व में इस्लामी दलों के उदय ने तुर्की की राजनीति में इस्लाम की भूमिका को और मजबूत किया। इस तरह के राजनीतिक अनुभवों ने तुर्की की विदेश नीति को भी प्रभावित किया और पाकिस्तान के साथ तुर्की की नजदीकी का समर्थन किया। साल 1954 में पाकिस्तान और तुर्की ने शाश्वत मित्रता की संधि पर हस्ताक्षर किए।
भूमध्य सागर में बढ़ते रूसी प्रभुत्व के खिलाफ 1955 में गठित 'बगदाद संधि' का पाकिस्तान सदस्य बना। पाकिस्तान ने इस संधि के सदस्य देशों से भारत के खिलाफ मदद मांगी लेकिन कोई भी देश पाकिस्तान के साथ खड़ा नहीं हुआ।
1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद तुर्की का झुकाव पाकिस्तान की ओर ज्यादा हो गया। इस्लाम के नाम पर उदय हुए पाकिस्तान ने तुर्की के साथ दोस्ती में अपना उज्ज्वल भविष्य देखा। तुर्की में रह रहे कुर्द, अल्बानियाई और अरब जैसे तुर्को के बीच पाकिस्तान की स्वीकार्यता में इस्लाम में बड़ी भूमिका अदा की। मुस्तफा कमाल पाशा की धर्मनिरपेक्ष सोच के बावजूद पाकिस्तान और तुर्की के संबंध धार्मिक आधार पर ही मजबूत हुए।
1970 के दशक में नेकमेटिन एर्बाकन के नेतृत्व में इस्लामी दलों के उदय ने तुर्की की राजनीति में इस्लाम की भूमिका को और मजबूत किया। इस तरह के राजनीतिक अनुभवों ने तुर्की की विदेश नीति को भी प्रभावित किया और पाकिस्तान के साथ तुर्की की नजदीकी का समर्थन किया। साल 1954 में पाकिस्तान और तुर्की ने शाश्वत मित्रता की संधि पर हस्ताक्षर किए।
भूमध्य सागर में बढ़ते रूसी प्रभुत्व के खिलाफ 1955 में गठित 'बगदाद संधि' का पाकिस्तान सदस्य बना। पाकिस्तान ने इस संधि के सदस्य देशों से भारत के खिलाफ मदद मांगी लेकिन कोई भी देश पाकिस्तान के साथ खड़ा नहीं हुआ।
चीन युद्ध: तुर्की ने तोप देने से किया था इनकार
1962 में चीन युद्ध के समय भारत ने पर्वतीय इलाकों में लड़ने के लिए तुर्की के साथ पर्वतीय होवित्जर (हल्के तोप) की खरीद के लिए एक समझौता किया था। जिसमें तुर्की अपने हल्के वजन वाले तोपों को भारत को देने वाला था लेकिन, पाकिस्तान के दबाव के कारण तुर्की ने पर्वतीय होवित्जर भेजने से इनकार कर दिया।
इस्लामिक सहयोग संगठन में भी हर बार भारत के खिलाफ गया तुर्की
इस्लामिक सहयोग संगठन में भी हर बार भारत के खिलाफ गया तुर्की