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शनिवार, 28 दिसंबर 2019

क्या बंगाल में वोटर बन गए हैं बांग्लादेशी घुसपैठिये? जानें- क्या कहती है मतदाता सूची

पश्चिम बंगाल में बांग्लादेशियों की घुसपैठ एक बड़ा सियासी मुद्दा रही है. सत्ताधारी टीएमसी और बीजेपी इसे लेकर अलग-अलग दावे करती आई हैं. बीजेपी नेताओं का दावा कि राज्य सरकार अवैध रूप से घुस आए लोगों को मतदाता बना रही है ताकि चुनाव में उसे फायदा मिले.
क्या बंगाल में वोटर बन गए हैं बांग्लादेशी घुसपैठिये? जानें
  • नेताओं का दावा है कि बांग्लादेश से अप्रवासियों का आना निरंतर जारी है
  • 1971 से 2011 के बीच के सभी जनगणना के आंकड़ों को इकट्ठा किया
भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद 1971 में पूर्वी-पाकिस्तान, पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश के रूप में एक नया देश बना था. उसी दौरान भारत के कुछ सीमावर्ती राज्यों खासकर असम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल आदि में बांग्लादेश के लोग प्रवेश कर गए. हालांकि इनकी निश्चित संख्या क्या होगी? इसको लेकर अलग-अलग दावे हैं. खासकर बंगाल जैसे राज्य में अवैध घुसपैठ को लेकर सियासत गर्म ही रहती है जहां बीजेपी और सत्ताधारी टीएमसी के अलग-अलग दावे हैं.

कुछ नेताओं ने यह भी दावा किया कि बांग्लादेश से अप्रवासियों का आना निरंतर जारी है. पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में प्रशासन उन्हें अवैध तरीके से घुसा कर मतदाता बना रहा है, जिससे राज्य के सत्ताधारी दल को चुनाव में फायदा मिले. बंगाल में विपक्षी दल बीजेपी के नेता लगातार दावे करते आए हैं कि राज्य में बड़ी तादाद में बांग्लादेशियों की घुसपैठ हुई है और NRC के जरिए उन्हें देश से बाहर किया जाएगा.

इंडिया टुडे ग्रुप के डाटा इंटेलिजेंस यूनिट (DIU) टीम ने एक आंकड़ा निकाला है. जिसमें भारत के मतदाताओं की संख्या में राज्यवार बदलाव और उस दौरान भारत की जनसंख्या दर में हुए (राज्यवार) बदलाव जानने की कोशिश की गई है.

इसमें दो आंकड़ें लिए गए हैं. पहला, वर्ष 1971 से 2019 के हुए सभी लोकसभा चुनाव में मतदाताओं के आंकड़े और दूसरा, 1971 से लेकर 2011 के बीच हुई भारत की सभी जनगणनाओं के आंकड़े.

हमने विश्लेषण को सिर्फ इन्हीं दो आंकड़ों तक सीमित रखा है. असम, पश्चिम बंगाल आदि राज्य में कितने अप्रवासी बांग्लादेशी आए, हम यहां उस आंकड़ों के संबंध में किसी प्रकार की टिप्पणी नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वो आंकड़े अभी भी प्रमाणिकता से दूर हैं.

अगर 1971 से मतदाताओं की संख्या दर में बदलाव और जनसंख्या दर में बदलाव के आंकड़े देखें तो पश्चिम बंगाल में किसी प्रकार का अप्रत्याशित बदलाव देखने को नहीं मिला, जिस आधार पर यह दावा किया जा सके कि बांग्लादेश से आए अप्रवासी लोगों को बड़े पैमाने पर मतदाता बनाया गया.

भारत के मतदाता संख्या दर में बदलाव: पश्चिम बंगाल और अन्य प्रमुख राज्य

1971 के लोकसभा चुनाव से अब तक, सभी लोकसभा चुनावों में मतदाता आंकड़ों को देखें तो पश्चिम बंगाल की मतदाता संख्या दर और भारत की औसत मतदाता संख्या दर लगभग एक जैसी ही है.

लोकसभा चुनाव 1971 से 2019 तक भारत की मतदाता संख्या दर का औसत 11 प्रतिशत रहा है, वहीं पश्चिम बंगाल में ये आंकड़ा 10 प्रतिशत है. अगर इन्हीं आंकड़ों को चुनाव दर चुनाव देखें तो भी उसमें कोई अप्रत्याशित बदलाव देखने को नहीं मिलता है.

मतदाता संख्या में बदलाव



2019 के लोकसभा चुनाव में देश के मतदाताओं की संख्या में करीब 10 फीसदी का इजाफा हुआ, वहीं पश्चिम बंगाल में 11 फीसदी. वहीं गुजरात में भी मतदाता संख्या की वृद्धि दर 11 फीसदी ही रही है. सबसे अधिक 14 फीसदी मतदाता वृद्धि दर राजस्थान में दर्ज की गई.

2014 आम चुनाव में मतदाताओं की संख्या दर में सबसे अधिक 16 प्रतिशत की वृद्धि हुई. वहीं पश्चिम बंगाल में करीब 20 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई, जो राष्ट्रीय दर से 3 प्रतिशत अधिक थी.

हालांकि, इस साल मतदाताओं की संख्या में सबसे अधिक 33 प्रतिशत की वृद्धि हरियाणा में दर्ज की गई. वहीं बड़े राज्यों की बात की जाए तो तमिलनाडु में 32 प्रतिशत मतदाता बढ़े.

पश्चिम बंगाल में मतदाताओं की संख्या में सबसे अधिक वृद्धि 1980 में दर्ज की गई. जब लोकसभा चुनाव में पूरे देश में मात्र 11 प्रतिशत मतदाता बढ़े जबकि पश्चिम बंगाल में यह प्रतिशत 19 था यानी कि 8 प्रतिशत अधिक. हालांकि इस साल हरियाणा, पंजाब और दिल्ली के मतदाताओं की संख्या पश्चिम बंगाल से भी अधिक थी. कर्नाटक और गुजरात में करीब 17 प्रतिशत मतदाता बढ़े थे.

1971 और 1985 के बीच मतदाता वृद्धि दर में बदलाव

इसे समझने के लिए हमने 1971 से 1984-85 मे हुई लोकसभा चुनाव के दौरान मतदाताओं की संख्या में हुए बदलाव को समझने की कोशिश की. दरअसल दावे के मुताबिक यही वो दौर था जब बांग्लादेशी प्रवासियों को बड़े पैमाने पर भारत के कई राज्यों- असम, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल आदि में मतदाता बनाया गया.

इसे समझने के लिए हमने राज्यवार (सभी प्रमुख राज्य जो उस समय थे) मतदाताओं की संख्या में बदलाव जानने की कोशिश की. हमने वर्ष 1971 को आधार माना और उसकी तुलना में 1984-85 लोकसभा चुनाव में आए बदलाव को आंकड़ों की दृष्टि से देखने की कोशिश की.

1971 लोकसभा चुनाव को आधार मानने की वजह यह है की यह चुनाव भारत-पाकिस्तान युद्ध से पहले हुआ था.

इस अवधि मे अगर राज्यवार मतदाताओं की वृद्धि दर में बदलाव को देखें तो असम के आंकड़े चौकाने वाले थे क्योंकि इस दौरान यहां के मातदाताओं की संख्या दर में 61 प्रतिशत का बदलाव हुआ. जो राष्ट्रीय (46 प्रतिशत) मतदाता वृद्धि दर से से 15 प्रतिशत अधिक है लेकिन इस अवधि में सबसे अधिक वृद्धि नागालैंड की रही जहां 115 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गई.

अगर बड़े राज्यों को देखें तो दिल्ली, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और गुजरात में मतदाताओं की वृद्धि दर असम से भी अधिक थी. वहीं पश्चिम बंगाल में यह आंकड़ा 49 प्रतिशत था जो की राष्ट्रीय दर से मात्र 3 प्रतिशत अधिक है.

1971 से 1985 के बीच मातदाता संख्या में बदलावमतदाता संख्या दर और जनसंख्या दर में बदलाव

मतदाताओं की संख्या दर में बदलाव को समझने के लिए हमने 1971 से 2011 के बीच के सभी जनगणना के आंकड़ों को इकट्ठा किया, ताकि यह देखा जा सके कि जनसंख्या वृद्धि दर के अनुपात में मतदाता संख्या दर में कोई अप्रत्याशित बदलाव हुआ या नहीं?

जनसंख्या दर में बदलाव



अगर ऊपर के ग्राफ में देखें तो दो चीजें स्पष्ट है – 1971 से 1991 के बीच, तीन जनगणना में पश्चिम बंगाल की जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय जनसंख्या वृद्धि दर के आसपास रही. हालांकि 1971 में यह राष्ट्रीय दर से 2 प्रतिशत अधिक थी.

2001 और 2011 के जनगणना मे बंगाल कि जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय वृद्धि दर कि तुलना में कम रही है. दोनों वर्षों में पश्चिम बंगाल कि जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय जनसंख्या वृद्धि दर कि तुलना में 4 प्रतिशत कम थी. जबकि इन्हीं अवधि में उत्तर प्रदेश, गुजरात आदि राज्यों की जनसंख्या वृद्धि दर, राष्ट्रीय दर की तुलना मे अधिक रही.

अगर 1991 को छोड़ दें तो 1971 से अभी तक के सभी जनगणना में गुजरात की जनसंख्या वृद्धि दर, राष्ट्रीय जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक ही रही है.

यानी कि भारत और अन्य राज्यों के जनसंख्या वृद्धि दर और मतदाता संख्या में वृद्धि दर के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो कहा जा सकता है कि जिस बड़ी संख्या को लेकर दावे किये जाते हैं, कम से कम उस दावे को ये आंकड़े सही नहीं बताते.

यानी कि पश्चिम बंगाल के मातदाताओं कि संख्या में कोई अप्रत्याशित बदलाव नहीं हुआ है

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