वाराणसी। 75वें स्वतंत्रता दिवस के जश्न में पूरा देश डूबा हुआ है , लेकिन क्या किसी को मालूम है कि उस आजादी के मिलने के पहले 6 महीनों में हमारे देश ने क्या खोया। क्या किसी को पता है कि गुलामी क्या होती है। ऐसे में हमने रुख किया शहर के परेड कोठी इलाके में रहने वाले 1971 में बांग्लादेश बटवारे के समय राष्ट्रपति पदक से सम्मानित तिलक राज कपूर को शहर में सभी जानते हैं। एक दिलेर व्यक्ति और एक सामजिक इंसान पर आज़ादी के आंखों देखे हाल को याद कर इस दिलेर की भी आंखें नम हो गयी। live VNS ने जब इनसे बात की तो आजादी के वो 6 महीने इनकी आंखों में आंसू बनकर तैर गए। वहीं उन्होंने कहा कि यदि मै सियासतदां होता तो कायदे आदम से समझौता करता नाकि बंटवारा क्योंकि वो अंग्रेज नहीं थे। तब शायद मुल्क में इतना खून-खराबा नहीं होता।
'आज़ादी की खुशबू लाहौर से लेकर उड़ीसा तक इत्र की खुशबू की तरह आजादी के तीन महीने पहले से मुल्क में फैल गयी थी लेकिन अफ़सोस था कि ये इत्र फिजा में घुले इंसानी खून की महक को कम नहीं कर पाया', जब तिलक राज कपूर ये बता रहे थे तो कहीं खो से गए। हमने उन्हें आवाज़ दी तो चौंक कर बोले जाने दीजिये फिर कभी, वो दिन आज भी सलाता है, लेकिन हमारी जिद पर उन्होंने एक बार फिर आजादी का फसाना शुरू किया।
20 मार्च 1929 में देवी दत्त मल के घर जन्मे तिलक राज कपूर ने अपनी आज़ादी की अहिंसात्मक लड़ाई और भारत पाकिस्तान बंटवारे का जो दर्द हमसे साझा किया उसे सुन के हमारी आंखे भी नम हो गयीं। वाराणसी के सुभाष नगर स्थित अपने मकान में तिलक अकेले रहते हैं। इनका परिवार शहर के पाण्डेयपुर इलाके में रहता है।
लाहौर में बिगड़ गए थे हालात
तिलका राज कपूर ने बताया कि 'हम उस समय के पकिस्तान के लाहौर शहर में रहते थे। आजादी के दो महीना पहले से पूरा मुल्क दंगों की भेंट चढ़ चुका था कट्टरपंथी हिन्दुओं को काट रहे थे। लोग अपनी जान के अमान के लिये हिन्दुस्तान भाग रहे हैं। हम सब लाहौर में थे हालात बिगड़ते जा रहे थे।
पिता के साथ जाता था सत्याग्रह में
तिलक राज कपूर ने बताया कि उस वक़्त अपने पिता देवी दत्त मल के साथ सत्याग्रह आंदोलनों में जाया करता था। सत्याग्रह स्थल पर एक ऊंचा मचान बनाया जाता था, जिसे उस मचान पर जगह मिलती थी, वही सत्याग्रही माना जाता था। साल 1942 में जब अगस्त क्रान्ति (भारत छोड़ो आंदोलन) शुरू हुई तो मैं बहुत छोटा था पर दिल में पिताजी की तरह देश को आजाद कराने का जोश था, इसलिए मैंने भी अपने लिए काम मांग लिया। मुझे दीवारों पर नारे लिखने का काम मिला। आजादी की शम्मा दिल में जलाये तिलक ने बताया कि बच्चा था इसलिए मुझे वाल राइटिंग का काम दे दिया गया। लाहौर की दीवारों पर अपनी मित्र मंडली के साथ ब्रिटिश सिपाहियों से बचते हुए 'अंग्रेजों भारत छोड़ो, इंकलाब जिंदाबाद' का नारा दीवारों पर लिखना बहुत गर्व की बात होती थी।
नहीं भूलती वो 11 कोड़ों की सजा
तिलक राज कपूर कि आज़ादी की लड़ाई में बहुत से मुकाम आये जब फिरंगियों का सामना हुआ, चोट भी लगीं, लाठी भी खाई। मगर तिलक मार्च 1943 के जेल में खाए गए 11 कोड़े आज भी नहीं भूलते। तिलक बताते हैं, 'सत्याग्रही मचान पर बैठे थे। मैं भी किसी सूरत उस मचान पर चढ़ गया और सत्याग्रहियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। मेरी उम्र देखकर मुझे 11 कोड़ों की सजा सुनाई गयी। जेल में रहते हुए मेरी कम उम्र की वजह से फिरंगियों ने मेरी ड्यूटी सत्याग्रहियों को पानी पिलाने की लगाई थी। आज भी अक्सर मुझे वो कोड़े याद आते हैं तो दिल में आजादी का जुनून जाग उठता है।
दो महीने पहले से आने लगी थी आजादी की गंध
तिलक बताते हैं, 'आज़ादी की बात जब सन 1947 में चलना शुरू हुई तो सबसे पहले बंटवारे की खाई सामने आ गयी। दोनों ही कौम के कट्टरपंथी खुद को अलग करने पर उतारू थे। आजादी हमें 15 अगस्त सन 1947 को मिली पर लाहौर और अन्य सीमांत प्रांतों में आजादी की खुशबू 2 महीना पहले से आनी शुरू हो गयी थी। मगर इसमें इंसानी खून की महक और चीत्कार भी शामिल थी। चारों तरफ कट्टरपंथियों का हुजूम नारे लगाता दिखाई पड़ता था, दंगे भड़क चुके थे। सड़कों पर निकलने के बाद कोई अपने घरों तक सुरक्षित पहुंचेगा या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं थी। चारों ओर चीख पुकार और कत्ले आम मचा था। हमारे घर के पास रोज किसी न किसी की ह्त्या हो रही थी।
आजादी के दो महीने बाद तक चला दंगा
उन्होंने बताया कि हिन्दुस्तान की गलियों में आजादी का जश्न मनाया जा रहा था, और पंजाब में दंगो का खौफ था। इधर से मुसलमानों को लेकर जाने वाली ट्रेन को हिन्दू कट्टरपंथी आग के हवाले कर देते थे। उधर से आने वाली ट्रेन को बीच रास्ते में मुस्लिम कट्टरपंथी रोककर सभी यात्रियों को काट दिया करते थे। अक्टूबर के बाद कुछ हालात सामान्य हुए। लोग शरणार्थी कैम्पों में शरण लेकर अपनी जान बचाते थे। हमारे परिवार के 17 सदस्यों ने भी एक महीने तक शरणार्थी कैम्प में शरण ली। कैम्प से एक किलोमीटर पैदल चलकर मंडी बहुउद्दीन (अब पाकिस्तान में) स्टेशन से ट्रेन पकड़कर भारत आये।
मैं होता तो कायदे आजम से समझौता करता
तिलक राज कपूर से जब Live VNS ने सवाल पूछा कि यदि आप होते तो क्या बंटवारा करवाते उसपर वो मुस्कुराए और बोले 'मैं यदि सियासतदां होता तो कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना से समझौता करता ना की बंटवारा करता। मुस्लिम लीग के नेता अंग्रेज नहीं थे। उनसे हम समझौता कर सकते थे, उनकी संख्या भी कम थी। मेरा पहला मकसद आजादी होता दूसरा अल्पसंख्यकों की मांग होती और 376 रियासतों एकजुट करना होता।
गांधी जी की अहिंसा से हुए प्रभावित
तिलक राज कपूर ने बताया कि आज़ादी की लड़ाई में कूदने से पहले मेरठ में पढ़ाई कर रहे थे। रोज गांधी जी के अहिंसा के बारे में साथी सहपाठियों से चर्चा होती थी। अगस्त क्रान्ति में जब गांधी जी ने पूरे देश से आह्वान किया तो मैं खुद को रोक नहीं पाया। पूरे जीवन काल में एक बार लाहौर से फ्रंटियर जाते हुए लाला मूसा रेलवे स्टेशन (अब पाकिस्तान में) और आजादी के बाद एक बार दिल्ली में प्रार्थना सभा में गांधी जी से मुलाकात का मौका मिला।
प्रधानमंत्री का धन्यवाद
1971 में बांग्लादेश के बंटवारे के समय तिलक राज कपूर ने नागरिक सुरक्षा में वार्डेन के पद पर रहते हुए उत्कृष्ट योगदान के लिए राष्ट्रपति पदक से नवाज़ा गया। जिस पदक को वो हमेशा अपने सीने से लगाये रहते हैं। तिलक के पास लाहौर या आज़ादी से जुड़ी यादें तो महफूज नहीं है। उनका लाहौर का घर जला दिया गया। उनके सामान को रास्ते में दहशतगर्दों ने लूट लिया, पर उनकी आंखों में आज भी बंटवारे का दर्द समाया हुआ है। तिलक राज कपूर ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को धन्यवाद िया कि पहली सरकार है जिसने विभाजन का दर्द सह चुके लोगों का हाल जाना।