राम की मर्यादा भी भूल गई BJP...!
BJP अपने आराध्य देव राम की मर्यादा को याद रखती, तो उसे ख़याल आता कि सार्वजनिक पद पर बैठे हुए व्यक्ति पर लगा लांछन कितने सख्त दंड की मांग करता है.
लेकिन एमजे अकबर के मामले में BJP को राम याद नहीं आए, उनकी मर्यादा याद नहीं आई. अकबर पर एक नहीं, 10महिलाओं ने आरोप लगाए. एक विदेशी पत्रकार ने भी आरोप लगाया. अकबर का कहना है कि सभी झूठ बोल रही हैं. वह यह सवाल पूछ रहे हैं कि चुनाव से ठीक पहले उन पर अचानक ये आरोप क्यों लगने लगे. इस सवाल का जवाब साफ़ है.#MeToo मुहिम ने अचानक औरतों के भीतर उनकी सोई हुई तकलीफ़ जगा दी है. इस मुहिम की शुरुआत एमजे अकबर के ख़िलाफ़ नहीं हुई थी. कई नामों के बाद अकबर इसके घेरे में आए. संभव है, कई दूसरे नेता भी आएं और दूसरे दलों के नेता भी आएं. कांग्रेस राफेल पर जितना शोर मचा रही है, उतना विदेश राज्यमंत्री पर लगे इन आपराधिक आरोपों पर नहीं - शायद यह डर हो कि इस मुहिम के घेरे में देर-सवेर उसके कुछ नेता भी फंस सकते हैं. सिनेमा और मीडिया से जुड़ी कई हस्तियां पहले से इसकी गिरफ़्त में हैं.
लेकिन BJP अकबर के प्रति इतनी सदय क्यों है...? अकबर कोई बड़े नेता नहीं हैं. उनका कोई ऐसा जनाधार नहीं है कि उनको बाहर करने से BJP को राजनीतिक नुक़सान हो. फिर इन आरोपों की अनदेखी दो तरह के संदेहों को ही जन्म देती है. पहली बात तो यह लगती है कि अकबर के पास पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं के कुछ ऐसे राज़ हो सकते हैं, जिनकी वजह से उन्हें निकालना या उनसे इस्तीफ़ा लेना ख़तरे से ख़ाली न हो.
लेकिन दूसरी बात ज़्यादा अहम है. संभव है, BJP के नेताओं को ये आरोप गंभीर ही न लग रहे हों. भारतीय समाज में पढ़ी-लिखी, तेज़-तर्रार स्त्रियों को कुछ संदेह और हिकारत से देखने का चलन है - जैसे ये स्त्रियां आदर्श भारतीय नारी के लिए खींची गई लक्ष्मणरेखा के पार जाकर कोई गुनाह करती हों. वे आदर्श मां, आदर्श पत्नी, आदर्श बहन से आगे जाकर कामकाजी और महत्वाकांक्षी स्त्रियों में बदल रही हैं और इसकी वजह से भारतीय विवाह संस्था और परिवार की चूलें हिल रही हैं. पढ़-लिख कर आगे बढ़ने की कामना रखने वाली ऐसी स्त्रियां कुछ भी करने को उतारू हो सकती हैं या उनके साथ कुछ भी किया जा सकता है - यह बात भी कहीं किसी अवचेतन में भारतीय पुरुष के भीतर दर्ज है.
संघ के गुरु गोलवलकर तो 'बंच ऑफ थॉट्स' में बाकायदा लिख चुके हैं कि औरतें बस बच्चे पैदा करने की मशीन हैं, उन्हें बाहर नहीं भेजना चाहिए. भले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, यानी RSS सार्वजनिक तौर पर इन विचारों से मुंह चुराता हो, लेकिन यह विचार कहीं उसके मानस में बद्धमूल हैं. यह न मानना संघ के साथ अन्याय होगा कि लगभग यही विचार हमारे समाज के औसत भारतीय मर्द या स्त्रियों के भीतर भी दिखते हैं. इससे जुड़ा विचार यह है कि दरअसल भारतीय स्त्रियों में ये बुराइयां पश्चिम की नकल में आई हैं - वहां स्त्रियां जिस बराबरी या स्वच्छंदता की बात करती हैं, वह यहां की स्त्रियों को लुभा रही है और उन्हें बरबाद कर रही है - उनके साथ समाज को भी पथभ्रष्ट कर रही है.
तो ये नौकरी करने वाली, अकेले घूमने वाली, कला, साहित्य या राजनीति की सीढ़ियों पर तेज़ी से चढ़ने वाली लड़कियां हमारे अवचेतन में पहले से ही गुनहगार हैं, इसलिए जब वे अपनी शिकायत रख रही हैं, तो पहला सवाल हमारे दिमाग में यही आ रहा है कि उन्होंने यह सब तब क्यों नहीं कहा, जब उनके साथ यह उत्पीड़न हो रहा था. तब वे पद, प्रतिष्ठा या दूसरी लिप्सा में घिरी रह गईं और अब फिर शोहरत के लिए यह शोर कर रही हैं. इसी के साथ हम यह भी मान लेते हैं कि #MeToo जैसी मुहिमें दरअसल पश्चिम से आती हैं, कुछ फैशनेबल क़िस्म की महिलाओं का खेल है और इससे शरीफ़ लड़कियों को दूर रहना चाहिए.
जबकि हम यह समझने को तैयार नहीं हैं कि अपने घर-परिवार पीछे छोड़कर, अपने सगे-संबंधियों की नाराज़गी और आपत्तियों को दरकिनार कर, चुप रहने और अत्याचार सहने की अपनी बरसों पुरानी ट्रेनिंग को फलांगकर जब ये लड़कियां किसी दफ़्तर में आती हैं, तो वे दरअसल सहमी हुई ही होती हैं. उन पर हुआ हल्का-सा हमला भी उनके पांव उखाड़ देता है. उन्हें पता होता है कि वे ऐसे हमले की शिकायत भी करेंगी, तो दफ़्तर हमलावर पर बाद में कार्रवाई करेगा, घर वाले पहले उनकी नौकरी छु़ड़ाएंगे. ऐसे हमलों के लिए वे ख़ुद ज़िम्मेदार मानी जाएंगी - उनके कपड़ों, उनके हावभाव, उनके चाल-चलन पर सवाल उठेंगे, यह पूछा जाएगा कि अपने सहकर्मियों से वे घुल-मिलकर उन्होंने बात क्यों की, उनको यह समझने का अवसर क्यों दिया कि उनसे छूट ली जा सकती है.
सच तो यह है कि भारतीय समाज में लालन-पालन की विडम्बनाओं ने स्त्री-पुरुष के बीच सहज संबंध रहने ही नहीं दिया है. इस समाज में आदर्श व्यवहार की कुछ बनी हुई कसौटियां हैं. लड़की चुप रहे, सहमी-सहमी घूमती रहे, जबकि लड़के लड़कियों से बात न करें, यह जाहिर न करें कि वे उनके दोस्त बनना चाहते हैं और उनसे सहज बातचीत न करें. लड़के और लड़कियों के बीच यह रेखा बहुत बचपन से खींच दी जाती है और अपने-अपने दायरे में रहना सुरक्षित माना जाता है.
विश्वविद्यालयों, दफ़्तरों या दूसरे कार्यस्थलों में लेकिन जब यह रेखा मिटती है, जब नौकरी या शिक्षा की मजबूरी में स्त्री-पुरुष क़रीब आते हैं, तो अक्सर दोहरी दुविधा दिखाई पड़ती है. बहुत सारे लड़के लड़कियों से एक सतर्क दूरी बरतते हैं, जैसे उनके करीब जाना भी उनके चरित्र पर दाग़ लगा देगा. बहुत सारी लड़कियां भी लड़कियों के बीच ही अपना सुरक्षित कोना खोज लेती हैं और पुरुष संसर्ग से ख़ुद को दूर रखती हैं. लेकिन धीरे-धीरे जब हम पाते हैं कि वे लड़कियां क़रीब आ रही हैं, कुछ दोस्त भी बनने को तैयार हैं, तो फिर उनसे वे अपेक्षाएं पालने लगते हैं, जिनका अधूरापन हमें कभी कुंठित और कभी हमलावर बनाता है.
दूसरी बात यह कि भारतीय दफ़्तरों में यौन हमले बहुत बारीक होते हैं. वे बिल्कुल संकेतों से शुरू होकर आगे बढ़ते हैं. लड़कियां समझते हुए भी ऐसे हमलों को दरकिनार करने को मजबूर होती हैं. लड़कियों को लेकर उनके पीठ पीछे छींटाकशी आम है. यह छींटाकशी उन लड़कियों को ज़्यादा झेलनी पड़ती है, जो अपने व्यवहार में कुछ खुली होती हैं. अक्सर इनकी शिकायत आसान नहीं होती.
इस #MeToo अभियान के विरोध में एक बात और कही जा रही है. बताया जा रहा है कि किस तरह मीडिया में बहुत सारी लड़कियां ऐसी हैं, जो अपनी अयोग्यता के बावजूद बॉस की कृपा से ऊंचे पदों पर पहुंचती रही हैं. कई अनुभव इस सच की तसदीक करते लगते हैं. लेकिन क्या उसी '#MeToo' का हिस्सा नहीं है, जिसमें लड़की कभी जबरन और कभी प्रलोभन से उत्पीड़ित की जा रही है...? वे अपने उत्पीड़न की कथाएं नहीं कहतीं, क्योंकि इसका मुआवज़ा भी उन्हें मिलता जाता है - यह मोटी समझ दरअसल उस विडम्बना को अलक्षित कर देती है, जिसके तहत कोई बॉस अपने गैरपेशेवर रवैये से अपने दफ़्तर का माहौल ख़राब कर रहा होता है और अंततः किसी लड़की को अपना शिकार बना रहा होता है.
ध्यान से देखें तो ये दोनों विडम्बनाएं एक हैं - स्त्री को सिर्फ देह तक सीमित करने की, उसे बस उपभोग की सामग्री मानने की - इस क्रम में एक सिरे पर ज़ोर-जबरदस्ती है, तो दूसरे सिरे पर वह 'सहमति-निर्माण', जिसे व्यक्तिगत आज़ादी के नाम पर गढ़ा जा रहा है. इस लिहाज़ से एक ज़्यादा बड़ी सच्चाई की ओर लोग इशारा नहीं कर रहे. जिस हिन्दुस्तान में लड़कियां मोहल्ला तक भाइयों और पिताओं का हाथ थामकर पार करती हैं, वहां मीडिया में आई लड़कियां तमाम तरह के जोखिम उठाकर बिल्कुल नए और अनजान क्षेत्रों में रिपोर्टिंग के लिए जा रही हैं. वे युद्ध, आतंक और विनाशलीला के बीच काम करती हैं और ऐसे मौकों पर उनके भाई, उनके पति, उनके ब्वॉयफ्रेंड और उनके महबूब उनके साथ नहीं होते, सिर्फ उनका साहस होता है, जो बहुत मुश्किल से अर्जित किया हुआ होता है.
दरअसल #MeToo की इस पूरी समस्या को निजी और चारित्रिक समस्या के तौर पर देखेंगे, तो उसका वह सामाजिक सिरा छोड़ देंगे, जो लड़कियों को आखेट और लड़कों को आखेटक बनाता है. बिल्कुल लालन-पालन से लेकर पढ़ाई-लिखाई और बाद में काम-धंधे तक जैसे एक यह ट्रेनिंग चलती रहती है कि लड़कियां कमतर हैं, वेध्य हैं, उनको संरक्षण में लिए जाने की ज़रूरत है - अक्सर यह संरक्षण भाव चुपचाप मालिकाना हक़ और अंततः शिकारी बर्ताव में कब बदल जाता है, यह किसी को पता नहीं चलता. ध्यान से देखें और ईमानदारी से मानें, तो पाएंगे कि जिन लोगों पर इस मुहिम के तहत अंगुली उठी है. उनके अलावा हम बहुत सारे लोग कभी न कभी किसी न किसी रूप में घर, दफ़्तर, स्कूल-कॉलेज में जाने-अनजाने ऐसा बर्ताव करते रहे हैं, जो लड़कियों को अपने लिए उत्पीड़न जैसा लगे. हमें यह अंदाजा तक नहीं है कि अपने सार्वजनिक जीवन में अपनी मौजूदगी की तरह-तरह की क़ीमत चुकाने वाली इन लड़कियों के भीतर कितना दुख जमा है, जो बस एक चोट पर बलबलाकर बाहर आने लगा है.
और आख़िर जब इतने सारे #MeToo हैं, तो वे बिना ही 'Too' के तो संभव नहीं हुए होंगे. जाहिर है, जिन्होंने झेला है, वे अपनी कहानी कह रहे हैं, जिन्होंने ये जुर्म किया है, वे चुप हैं. लेकिन अगर यह मुहिम बहुत सारे लोगों के भीतर एक छिपा हुआ पछतावा भी पैदा करती है, उन्हें अपने-आप से आंख मिलाते हुए शर्मिन्दा होने का एक अवसर देती है, तो यह छोटी बात नहीं है. यह निजी दुष्चरित्रता से ज़्यादा एक सामाजिक संकट का मामला है, इसे समझना और इसका सामना करना ज़रूरी है.
असली बात तो यह है कि अपने व्यवहार में सामंती सड़ांध जितनी स्त्री विरोधी है, पूंजीवादी लंपटता उससे कहीं ज़्यादा स्त्री विरोधी है. एक घर के भीतर स्त्री का गला घोंटती है, दूसरी बाजार में उसे बेलिबास करके मारती है. हमारा पूरा मनोरंजन उद्योग स्त्री को देह में, और देह को वस्तु में बदलने के खेल पर टिका है, इसलिए #MeToo की यह मुहिम सिर्फ कुछ लोगों को बेनकाब करने तक सीमित नहीं रहनी चाहिए - हालांकि यह काम भी ज़रूरी है - उसे आगे जाकर उस वैकल्पिक आधुनिकता का रास्ता खोलने की ज़रूरत है, जो स्त्री को उसका व्यक्तित्व लौटाए, उसे समाज में सम्मान और गरिमा के साथ जीने का अवसर दे.
एमजे अकबर और BJP के रवैये पर लौटें. यह स्वाभाविक है कि अकबर अपना बचाव करें, लेकिन BJP भी अकबर के बचाव में उतर आए - यह ख़तरनाक है. इससे पता चलता है कि BJP अपनी विचारधारा में स्त्रियों को लेकर किस कदर संवेदनहीन है. हवाला में लालकृष्ण आडवाणी का नाम आने पर उन्होंने तत्काल इस्तीफ़ा दिया, तहलका के स्टिंग ऑपरेशन में घिरने के बाद जॉर्ज फ़र्नांडिस को जाना पड़ा - शायद इसलिए कि भ्रष्टाचार के आरोप BJP को बड़े लगते थे, लेकिन यौन उत्पीड़न के कई गंभीर आरोपों में घिरे होने के बावजूद एमजे अकबर सुरक्षित हैं - शायद इसलिए कि BJP की नजर में वे महिलाएं ही संदिग्ध हैं, जो अकबर पर आरोप लगा रही हैं. नहीं तो इतना तो होता ही कि आरोपमुक्त होने तक अकबर पदमुक्त भी किए जाते. यह सिर्फ अकबर की व्यक्तिगत ढिठाई नहीं, BJP की वैचारिक निर्लज्जता भी है. निस्संदेह, इसमें एक समाज के रूप में हमारी नाकामी भी छिपी है.