Bharat Rajneeti: धर्म के नाम पर वोट मांगना संविधान की आत्मा का उल्लंघन - Bharat news, bharat rajniti news, uttar pradesh news, India news in hindi, today varanasi newsIndia News (भारत समाचार): India News,world news, India Latest And Breaking News, United states of amerika, united kingdom

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सोमवार, 6 मई 2019

Bharat Rajneeti: धर्म के नाम पर वोट मांगना संविधान की आत्मा का उल्लंघन

इंटरव्यू: धर्म के नाम पर वोट मांगना संविधान की आत्मा का उल्लंघन


पूर्व मंत्री आरिफ मोहम्मद खान (फाइल फोटो): Bharat Rajneeti
पूर्व मंत्री आरिफ मोहम्मद खान (फाइल फोटो): Bharat Rajneeti
Bharat Rajneeti: पूर्व कैबिनेट मंत्री आरिफ मोहम्मद खान का दो टूक कहना है कि किसी भी समुदाय से धर्म के नाम पर इकट्ठे होकर वोट डालने की अपील करना संविधान की आत्मा का उल्लंघन है। आरिफ मोहम्मद खान वही नेता हैं, जिन्होंने शाह बानो केस में राजीव गांधी से मतभेद  के चलते 1986 में कांग्रेस सरकार से इस्तीफा ही नहीं दिया, पार्टी भी छोड़ दी थी। बाद में भाजपा में शामिल हुए, लेकिन उससे भी किनारा कर लिया। वे 1980 से ही तीन तलाक के खिलाफ बोलते रहे हैं। कहते हैं कि तीन तलाक तो औरतों को जमीन में दफनाने जैसा है। इसमें इस्लाम का मूल तत्व नहीं है। आरिफ मोहम्मद खान से डॉ. इन्दुशेखर पंचोली की खास बातचीत- पूर्व मंत्री आरिफ मोहम्मद खान बोले- 
चुनाव में मुसलमानों के मुद्दे वही जो भारत के बाकी नागरिकों के तीन तलाक पर रोक क्रांतिकारी फैसला, इसे सियासत से जोड़ना उसकी अहमियत कम करना इस बार का लोकसभा चुनाव देश के लिए क्यों अहम है?

हर चुनाव अहम होता है, क्योंकि लोकतंत्र चुनाव के माध्यम से ही मजबूत बनता है। अभी तक मानव बुद्धि ने राज्य के संचालन के लिए जितनी व्यवस्थाएं बनाई हैं, उनमें यही अकेला तरीका है, जिसमें बिना खून बहाए सरकारें बनाई और बदली जा सकती हैं। यह राजनीतिक संस्कृति के विकास की महान उपलब्धि है, जिसको सुदृढ़ और सशक्त करने के लिए हर चुनाव अपने आप में अहम बन जाता है।

मुसलमानों के मतदान व्यवहार पर रोशनी डालिए। क्या मुसलमानों का भाजपा को लेकर नजरिया बदला है?

यह सवाल इस मान्यता पर आधारित है कि मुस्लिम या हर धार्मिक-सामाजिक समुदाय अपने आप में एक राजनीतिक इकाई भी है, जो दूसरों से भिन्न है और उसके हित भी दूसरों से टकराते हैं। यह मानसिकता उन उपनिवेशवादी कानूनों-नीतियों का परिणाम है, जो भारत को एक राष्ट्र न मानकर विभिन्न धर्मों और जातियों का समूह मानती थी, जिन्होंने पृथक चुनाव प्रणाली जैसी कई व्यवस्थाएं बनाई थीं। इसका नतीजा भारत के विभाजन के रूप में हुआ। अफसोस यह है कि यह ढांचा खत्म हो जाने के बावजूद हमने अपना मानस नहीं बदला। हम आज भी नागरिक को नहीं, उसके समुदाय को प्रमुखता देते हैं। जबकि भारत का संविधान नागरिक को राष्ट्र की इकाई मानता है। मेरी जानकारी में इस संदर्भ में किसी अध्ययन के आधार पर कोई आंकड़े नहीं हैं। बिना आधार पर मैं कोई बात नहीं कहना चाहता।

मुसलमान वोट न बंटे, जनसभाओं में इसके लिए एलान हो रहे हैं, कितना जायज है?

किसी भी समुदाय से धर्म के नाम पर वोट डालने की अपील करना संविधान की आत्मा का उल्लंघन है। लेकिन शायद यह बातें हमारे मन मस्तिष्क पर कोई असर ही नहीं डालती हैं।

क्या मुसलमानों की मजबूरी है कि वह खास दलों को ही वोट दे?

मैं मुस्लिम परिवार में पैदा हुआ हूं, इसलिए आप समझते हैं कि मैं इस प्रश्न का उत्तर दे सकता हूं। अगर आप मेरे राजनीतिक आचरण को थोड़ा सा भी समझ लेते तो आप यह जान जाते कि यह सवाल समय नष्ट करने जैसा है।

चुनाव में मुस्लिमों के मुद्दे क्या होने चाहिए?

जो मुद्दे भारत के दूसरे नागरिकों के हैं।

तीन तलाक बिल के चलते मुस्लिम महिलाओं में भाजपा की स्वीकार्यता बनी है?

तीन तलाक का मुद्दा मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा मुद्दा है। यह कानून क्रांतिकारी फैसला है। इसे राजनीति, चुनाव से जोड़कर उसका महत्व कम करने का कोई प्रयास मुझे अटपटा लगता है। मुझे विश्वास है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस काम को इतिहास में लैंगिक समानता कायम करने के बड़े फैसले के तौर पर देखा जाएगा।

तीन तलाक बिल मौजूदा स्वरूप में ठीक है? या इसमें कुछ सुधार जरूरी मानते हैं?

अगस्त 2018 में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय तीन तलाक के खिलाफ आया था, लेकिन इस फैसले के तीन महीने के भीतर 100 से ज्यादा तीन तलाक के केस सामने आए थे। जब से तीन तलाक कानूनन दंडनीय घोषित किया गया है, तब से एक भी केस सामने नहीं आया है। सुधार की जरूरत तब होती है जब कानून का कोई दुरुपयोग होता है। यहां तो कानून के उपयोग की जरूरत ही नहीं पड़ रही। 

भाजपा सरकार दोबारा नहीं आती है, तो शाहबानो मामले की तरह तीन तलाक बिल का भी हश्र हो सकता है?

कांग्रेस प्रवक्ता ने घोषणा तो यही की है।

तीन तलाक बिल पर राजनीतिक दलों से आपकी क्या अपेक्षाएं हैं?

उन्हें जो करना था, कर चुके। राज्य सभा में बिल पास नहीं होने दिया। मजबूरन सरकार को अध्यादेश लाना पड़ा। अपेक्षाएं रखने से क्या फायदा?
तीन तलाक बिल पर आपने सरकार को सलाह दी थी। क्या मुसलमानों के अन्य जरूरी मसलों पर भी आपने कोई सलाह दी?
पहली बात तो यह कि मैंने पत्र लिख कर मांग की थी, तो प्रधानमंत्री ने बुलाकर मेरी राय जानी थी। प्रश्न के दूसरे हिस्से का जवाब ‘नहीं’ है।

अब मुस्लिम महिलाएं मस्जिदों में प्रवेश का हक मांगने भी सुप्रीम कोर्ट पहुंची हैं। इसे किस तरह देखते हैं?

धार्मिक आस्था और आचरण तो संविधान द्वारा दिया गया बुनियादी अधिकार है। यह हर नागरिक को मिला है। मुस्लिम इतिहास का अध्ययन करें तो पाएंगे कि महिलाएं शुरू से ही मस्जिद जाती थीं। मक्का और मदीना की दोनों मस्जिदें जिन्हें ‘हरमेन शरीफैन’ कहते हैं, उनमें महिलाएं हमेशा की तरह आज भी जाती हैं।

क्या आप जैसी प्रगतिशील शख्सियत को सियासत में सक्रिय नहीं होना चाहिए?

मैं बहुत लंबे समय तक सक्रिय राजनीति का हिस्सा रहा हूं। अभी भी बहुत सक्रिय हूं, लेकिन चुनावी राजनीति के बाहर। हर समय और काल की अपनी आवश्यकताएं होती हैं जिन्हें नियति पूरा करती है। मनुष्य तो नियति का आला मात्र है।

मुसलमान समाज मुख्यधारा में क्यों नहीं आ पा रहा? समाज और सरकार जिम्मेदार है या मुस्लिम नेतृत्व?

मैं इस प्रश्न को सही नहीं मानता हूं। किसी भी दूसरे समुदाय की तरह मुसलमानों में भी विभिन्न विचार वाले लोग हैं, जिनमें मुख्यधारा वाले भी हैं और उससे कटे हुए भी। आप जिनको जिम्मेदार मानते हैं, मैं उससे सहमत नहीं हूं। असल समस्या शिक्षा व्यवस्था है। इससे इनकार करना कठिन है कि हम अपने बच्चों की समुचित शिक्षा देने में नाकाम रहे हैं। अगर देश के भविष्य की चिंता है तो हमें शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देना पड़ेगा। मैं स्कूली शिक्षा से आगे नैतिक और भारतीय ज्ञान की बात कर रहा हूं जो हमें एक-दूसरे का आदर और विभिन्नता स्वीकार करने की सीख दे।

मौजूदा मुस्लिम नेतृत्व क्या समाज की उम्मीदों को पूरा कर पा रहा है? वह दिशा दे रहा है, या खुद दिशा भटक रहा है?

संविधान में राजनीतिक दृष्टिकोण से धार्मिक समुदाय के आधार पर नेतृत्व विकसित करने का कोई प्रावधान नहीं है। नेतृत्व का विकास धार्मिक संबद्धता नहीं बल्कि बुद्धि, चरित्र और करुणा के आधार पर होने की कल्पना की गई है।

मुस्लिम नेतृत्व महज वोटों का ठेकेदार तो बनकर नहीं रह गया?

इस पर टिप्पणी करना उचित नहीं समझता।

धर्मनिरपेक्षता के नाम पर आडंबर तो हावी नहीं है?

धर्म निरपेक्षता की भारतीय कल्पना आस्था विरोधी नहीं, बल्कि भारतीय जीवन शैली में निहित है। यह जीवन शैली विविधता को कमजोरी नहीं बल्कि अपनी एकता को सुदृढ़ करने के स्रोत के तौर पर देखती है। 

भारतेषु स्त्रया पुरुषो नानवर्णा प्रकृतिते
नाना देव अर्चने युक्ता नाना कर्माणी कुरवते
अर्थात भारत के स्त्री-पुरुष अलग-अलग रंग के हैं, उनके आराध्य अलग-अलग हैं और वह अलग-अलग रस्म और रिवाज के अनुसार अपने कार्य करते हैं। भारतीय सभ्यता की शुरुआत ऋग्वेद से हुई है। यहां एक संदेश में कहा गया है ‘एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति’ अर्थात सत्य (हक) एक है, पर उसका बखान अलग-अलग रूप में किया गया है। हर व्यक्ति का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह अपना आध्यात्मिक रास्ता खुद ढूंढे, यानी ‘आप्प दीपो भव:।’ यही हमारी धर्मनिरपेक्षता है और इसे सुदृढ़ करने का इससे बेहतर उपाय मिलना कठिन है।

चुनाव में मुस्लिमों के लिए संदेश?

मैं अगर संदेश दूंगा तो केवल एक समुदाय को नहीं बल्कि अपने देश के सब लोगों को दूंगा, लेकिन मैं अपने आप को इसका अधिकारी नहीं मानता हूं। मैं अपनी सोच को दूसरों के साथ साझा कर सकता हूं, मैंने वही करने की कोशिश की है।

देश में भीड़ की हिंसा के पीछे किस तरह की मनोवृत्ति हावी है? कैसे निजात मिल सकती है इनसे?

पहली जरूरत है सख्ती के साथ कानून लागू करने की, लेकिन यह आग बुझाने जैसा काम है। असल समाधान है भारतीयता को सुदृढ़ करना। भारतीय संस्कृति की विशेषता आत्मज्ञान और बहुविध है। यह दोनों कल्पनाएं हमें विविधता को स्वीकार करना सिखाती हैं। बताती हैं कि हमारा यह जीवन हमारी पहचान नहीं है, बल्कि हमारी असल पहचान वह चैतन्य आत्मा है जो हमें हर जीव से जोड़ती है। गीता में कहा गया है कि ईश बोध का मतलब है जहां हमें हर जीव की पीड़ा की अनुभूति होने लगे।

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