अजेय गढ़ रहे बंगाल में भी साफ होता वाममोर्चा : लोकसभा चुनाव 2019
क्या कभी देश में सबसे मजबूत लाल किला समझे जाने वाले पश्चिम बंगाल में भी वाममोर्चा का कोई नामलेवा नहीं बचा है? लोकसभा चुनावों के बाद आए एग्जिट पोल्स के नतीजे तो यही बताते हैं कि लगातार 34 साल बंगाल पर राज करने वाली माकपा और उसके सहयोगी दलों का इस बार सूपड़ा साफ होना तय है। वैसे, राजनीतिक पर्यवेक्षक तो पहले से ही ऐसी अटकल लगा रहे थे। लेकिन एग्जिट पोल्स ने उनके आकलन पर लगभग मुहर लगा दी है। राजनीति बड़ी बेरहम होती है। वाममोर्चा से बेहतर भला इस बात को कौन समझ सकता है। कभी लालकिले के नाम से मशहूर इसी बंगाल में इन लोकसभा चुनावों में ऐड़ी-चोटी का पसीना एक करने के बावजूद चार दशकों में पहली बार उसका खाता खुलने की भी उम्मीद नहीं नजर आ रही है। मोर्चा ने वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में राज्य की 42 में से दो सीटें जीती थीं। वे सीटें भी माकपा के खाते में गई थीं। माकपा अपनी उन दो सीटों को बचाने में ही नाकाम नजर आ रही है।
करिश्माई नेता की कमी अखर रही
पश्चिम बंगाल में बीते एक दशक से वामदलों के पैरों तले की जमीन खिसक रही है। पंचायत से लेकर तमाम चुनावों में पार्टी तीसरे-चौथे नंबर पर खिसकती रही है। माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और पूर्व महासचिव प्रकाश कारत के बीच लगातार बढ़ती खाई ने बंगाल में वाममोर्चा को राजनीतिक हाशिए पर पहुंचा दिया है। बंगाल में उसके पास ज्योति बसु या बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसा कोई करिश्माई नेता नहीं बचा है। ग्रामीण इलाकों के बलबूते लगभग साढ़े तीन दशकों तक बंगाल पर राज किया, लेकिन उन इलाकों में हुए पंचायत चुनावों में भी उसे मुंह की खानी पड़ी। इस दौरान राज्य में भाजपा ही नंबर दो के तौर पर उभरी।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि नई सामाजिक-आर्थिक संरचना के अनुरूप नीतियों में जरूरी बदलाव करने में नाकामी, आत्ममंथन का अभाव, आंतरिक मतभेदों, प्राथमिकताएं तय नहीं होने और खासकर पश्चिम बंगाल में पूर्व मुख्यमंत्रियों—ज्योति बसु व बुद्धदेव भट्टाचार्य की कद-काठी के नेताओं की कमी ने पार्टी को आम लोगों से दूर कर दिया है।
29 साल पहले चुनाव में मिले थे 50 प्रतिशत वोट
वर्ष 1980 के लोकसभा चुनावों में वाममोर्चा को यहां सबसे ज्यादा 38 सीटें मिली थीं। तब उसे 50 फीसदी वोट मिले थे। उसके बाद वर्ष 1996 औऱ 2004 के आम चुनावों में क्रमशः 33 और 34 सीटें मिलीं। लेकिन उसके बाद उसके पैरों तले की जमीन खिसकने का सिलसिला शुरू हो गया। वर्ष 2009 के चुनावों में उसे भारी झटका लगा और पहली बार उसकी सीटों की तादाद घट कर 15 रह गई। वर्ष 2014 में तो उसे महज 29 फीसदी वोट और दो सीटों से ही संतोष करना पड़ा।
करात और येचुरी की दिशा अलग-अलग
आखिर अपने सबसे मजबूत गढ़ में वामपंथियों की ऐसी हालत कैसे हुई? दरअसल, लेफ्ट के सबसे बड़े घटक माकपा के शीर्ष नेतृत्व के बीच बढ़ते मतभेदों ने पार्टी को हाशिए पर पहुंचा दिया। विपक्षी महागठबंधन के सवाल पर प्रकाश करात और सीताराम येचुरी की अलग-अलग लाइन रही। माकपा की बंगाल प्रदेश समिति इस मुद्दे पर येचुरी के साथ रही। शीर्ष नेतृत्व ने बंगाल में माकपा को कांग्रेस से गठबंधन की अनुमति नहीं दी। नतीजतन पार्टी के पैरों तले जमीन खिसकने का सिलसिला नहीं रुक सका।
हमने ऐसी कल्पना भी नहीं की : मौला
माकपा के पोलित ब्यूरो सदस्य हन्नान मौला मानते हैं कि यह चुनाव वामदलों के लिए बंगाल में सबसे कठिन राजनीतिक लड़ाई थी। हमने कभी इस हालत में पहुंचने की कल्पना तक नहीं की थी। माकपा की केंद्रीय समिति के नेता सुजन चक्रवर्ती मानते हैं कि अगर यहां कांग्रेस के साथ तालमेल हो गया होता तो, तस्वीर कुछ अलग होती।
करिश्माई नेता की कमी अखर रही
पश्चिम बंगाल में बीते एक दशक से वामदलों के पैरों तले की जमीन खिसक रही है। पंचायत से लेकर तमाम चुनावों में पार्टी तीसरे-चौथे नंबर पर खिसकती रही है। माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और पूर्व महासचिव प्रकाश कारत के बीच लगातार बढ़ती खाई ने बंगाल में वाममोर्चा को राजनीतिक हाशिए पर पहुंचा दिया है। बंगाल में उसके पास ज्योति बसु या बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसा कोई करिश्माई नेता नहीं बचा है। ग्रामीण इलाकों के बलबूते लगभग साढ़े तीन दशकों तक बंगाल पर राज किया, लेकिन उन इलाकों में हुए पंचायत चुनावों में भी उसे मुंह की खानी पड़ी। इस दौरान राज्य में भाजपा ही नंबर दो के तौर पर उभरी।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि नई सामाजिक-आर्थिक संरचना के अनुरूप नीतियों में जरूरी बदलाव करने में नाकामी, आत्ममंथन का अभाव, आंतरिक मतभेदों, प्राथमिकताएं तय नहीं होने और खासकर पश्चिम बंगाल में पूर्व मुख्यमंत्रियों—ज्योति बसु व बुद्धदेव भट्टाचार्य की कद-काठी के नेताओं की कमी ने पार्टी को आम लोगों से दूर कर दिया है।
29 साल पहले चुनाव में मिले थे 50 प्रतिशत वोट
वर्ष 1980 के लोकसभा चुनावों में वाममोर्चा को यहां सबसे ज्यादा 38 सीटें मिली थीं। तब उसे 50 फीसदी वोट मिले थे। उसके बाद वर्ष 1996 औऱ 2004 के आम चुनावों में क्रमशः 33 और 34 सीटें मिलीं। लेकिन उसके बाद उसके पैरों तले की जमीन खिसकने का सिलसिला शुरू हो गया। वर्ष 2009 के चुनावों में उसे भारी झटका लगा और पहली बार उसकी सीटों की तादाद घट कर 15 रह गई। वर्ष 2014 में तो उसे महज 29 फीसदी वोट और दो सीटों से ही संतोष करना पड़ा।
करात और येचुरी की दिशा अलग-अलग
आखिर अपने सबसे मजबूत गढ़ में वामपंथियों की ऐसी हालत कैसे हुई? दरअसल, लेफ्ट के सबसे बड़े घटक माकपा के शीर्ष नेतृत्व के बीच बढ़ते मतभेदों ने पार्टी को हाशिए पर पहुंचा दिया। विपक्षी महागठबंधन के सवाल पर प्रकाश करात और सीताराम येचुरी की अलग-अलग लाइन रही। माकपा की बंगाल प्रदेश समिति इस मुद्दे पर येचुरी के साथ रही। शीर्ष नेतृत्व ने बंगाल में माकपा को कांग्रेस से गठबंधन की अनुमति नहीं दी। नतीजतन पार्टी के पैरों तले जमीन खिसकने का सिलसिला नहीं रुक सका।
हमने ऐसी कल्पना भी नहीं की : मौला
माकपा के पोलित ब्यूरो सदस्य हन्नान मौला मानते हैं कि यह चुनाव वामदलों के लिए बंगाल में सबसे कठिन राजनीतिक लड़ाई थी। हमने कभी इस हालत में पहुंचने की कल्पना तक नहीं की थी। माकपा की केंद्रीय समिति के नेता सुजन चक्रवर्ती मानते हैं कि अगर यहां कांग्रेस के साथ तालमेल हो गया होता तो, तस्वीर कुछ अलग होती।
बदलते वक्त से तालमेल नहीं रख पाई पार्टी
राजनीति विज्ञान के एक प्रोफेसर संजय सेनगुप्ता कहते हैं कि बदलते समय के साथ खुद को नहीं बदलना ही माकपा की नाकामी और उसके राजनीतिक हाशिए पर पहुंचने की प्रमुख वजह रही। वह कहते हैं कि आंतरिक मतभेदों में व्यस्त रहने की वजह से शीर्ष नेतृत्व ने कभी इन वजहों पर ध्यान देकर उनको दूर करने की कोई रणनीति ही नहीं बनाई। नतीजतन पार्टी धीरे-धीरे आम लोगों और खासकर कामगार तबके से दूर होती गई। पर्यवेक्षकों का कहना है कि माकपा ने कभी जमीनी हकीकत पर ध्यान नहीं दिया। यही वजह है कि बंगाल में कोई एक दशक पहले उसके जनाधार में गिरावट का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह अब भी जस का तस है।
माकपा के पूर्व सांसद प्रसेनजित बोस कहते हैं कि वाममोर्चा में संकट की शुरुआत बंगाल से हुई, लेकिन शीर्ष नेतृत्व हकीकत कबूल नहीं कर सका। उनका सवाल है कि जब तक आप संकट और उसकी वजह स्वीकार नहीं करेंगे, उसे दूर करने की रणनीति कैसे बनाई जा सकती है? बोस कहते हैं कि बंगाल में नेतृत्व की दूसरी कतार नहीं पनप सकी। पार्टी को अब इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। वाममोर्चा के अध्यक्ष बिमान बसु मानते हैं कि युवा तबके के लोग वाम दलों की ओर आकर्षित नहीं हो रहे हैं। उनका दावा है कि पार्टी बंगाल में अपना खोया जनाधार दोबारा हासिल करने की रणनीति बना रही है।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि राष्ट्रीय और राज्य की राजनीति में लगातार अपनी प्रासंगिकता खोने के बावजूद नेतृत्व खुद या पार्टी की नीतियों को बदलने के लिए तैयार नहीं है। पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समितियों के जरिए सामूहिक तौर पर फैसला लेने की उसकी रणनीति भी वोटरों को रास नहीं आ रही है। शीर्ष नेतृत्व में बढ़ती कड़वाहट ने भी माकपा के वोट बैंक के बिखरने की प्रक्रिया तेज की है और एग्जिट पोल्स के नतीजों से साफ है कि भाजपा ने उसके वोट बैंक में जबरदस्त सेंध लगाई है।
माकपा के पूर्व सांसद प्रसेनजित बोस कहते हैं कि वाममोर्चा में संकट की शुरुआत बंगाल से हुई, लेकिन शीर्ष नेतृत्व हकीकत कबूल नहीं कर सका। उनका सवाल है कि जब तक आप संकट और उसकी वजह स्वीकार नहीं करेंगे, उसे दूर करने की रणनीति कैसे बनाई जा सकती है? बोस कहते हैं कि बंगाल में नेतृत्व की दूसरी कतार नहीं पनप सकी। पार्टी को अब इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। वाममोर्चा के अध्यक्ष बिमान बसु मानते हैं कि युवा तबके के लोग वाम दलों की ओर आकर्षित नहीं हो रहे हैं। उनका दावा है कि पार्टी बंगाल में अपना खोया जनाधार दोबारा हासिल करने की रणनीति बना रही है।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि राष्ट्रीय और राज्य की राजनीति में लगातार अपनी प्रासंगिकता खोने के बावजूद नेतृत्व खुद या पार्टी की नीतियों को बदलने के लिए तैयार नहीं है। पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समितियों के जरिए सामूहिक तौर पर फैसला लेने की उसकी रणनीति भी वोटरों को रास नहीं आ रही है। शीर्ष नेतृत्व में बढ़ती कड़वाहट ने भी माकपा के वोट बैंक के बिखरने की प्रक्रिया तेज की है और एग्जिट पोल्स के नतीजों से साफ है कि भाजपा ने उसके वोट बैंक में जबरदस्त सेंध लगाई है।