अर्थव्यवस्था को बुखार सा लग गया है, काफी नहीं पैरासिटामोल की गोली: मंदी पर छात्रों की राय
भारतीय अर्थव्यवस्था (सांकेतिक तस्वीर) : bharat rajneeti
अर्थव्यवस्था को बुखार सा लग गया है, जिसे किसी एक पैरासिटामोल की गोली से ठीक नहीं किया जा सकता है। इसमें कोई यूरोपियन नीतिगत दवाई भी काम करती नजर नहीं आ रही है। इस बुखार को उतारने के लिए कामगारों से लेकर बड़े कॉरपोरेट हेड तक को देसी मंथन के फार्मूले से काम करना होगा। फिर भी सभी की नजरें सरकार पर टिकी हैं, क्योंकि वही इसको अंजाम तक पहुंचा सकती है। इस बुखार को खारिज करने वाले अर्थशास्त्री, राजनेता और अन्य अफसर इससे कन्नी नहीं काट सकते, क्योंकि अब इस बुखार ने अर्थव्यवस्था के सीने को जकड़ लिया है।
नोएडा स्थित लॉयड लॉ कॉलेज में चौथे साल की पढ़ाई कर रहे ऋषव रंजन, जो कि मूल रूप में जमशेदपुर के हैं। वहां टाटा मोटर्स और आदित्यपुर की कंपनियों का हाल जानने के बाद उन्होंने ये बातें कही हैं। ऋषव रंजन के मुताबिक, ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री की बिक्री में आई गिरावट लगभग हर कंपनी की कहानी है। चूंकि ऑटोमोबाइल सेक्टर को उसकी स्थिति से मापा जाता है, इसलिए मारुति जैसी कंपनी में भी 36 प्रतिशत की गिरावट आई है। महिंद्रा (ट्रेक्टर) में 12 फीसदी और अशोक लेलैंड (ट्रक) में 14 फीसदी की गिरावट आई है। टाटा मोटर्स ने भी 'ब्लॉक क्लोजर' के बहाने कई बार अपनी कंपनी बंद रखी है। फेडरेशन ऑफ ऑटोमोबाइल डीलर्स के मुताबिक, देश में 286 डीलर्स को अपना बोरिया-बिस्तर बांध कर बाजार छोड़ कर जाना पड़ा। इससे 32 हजार नौकरियों का नुकसान हुआ है। आने वाले समय में दो लाख नौकरियों का नुकसान हो सकता है।
शेयर बाजार में 2002 के बाद ये सबसे ज्यादा गिरावट वाला महीना है
ऋषव रंजन के मुताबिक, शेयर बाजार में 2002 के बाद यह महीना सबसे ज्यादा आर्थिक गिरावट वाला माना जाता है। फिस्कल डेफिसिट, जिसके जरिए देश की आर्थिक सेहत में आई कमी को दर्शाया जाता है, अमूमन इसी आंकड़े को देख कर निवेशक अपना मूड बनाता है। कैग (सीएजी) ने माना है की फिस्कल डेफिसिट का आंकड़ा 5.9 फीसदी बढ़ गया है जो की सरकार के हिसाब से 3-4 फीसदी के आसपास था। इससे बाजार के निवेशक बेहद निराश हैं। आम तौर पर बाजार के बड़े कॉरपोरेट सुझाव देते हैं, ऐसी स्थिति से उभरने के वे कुछ नए रास्ते सुझाते हैं, लेकिन इस वक्त वे ज्यादा कुछ बोलने के मूड में नहीं दिख रहे हैं।
आम जनता भी उनसे कुछ ज्यादा अपेक्षा नहीं कर रही है। वजह, बड़े निवेश और डिमांड में भारी गिरावट का आना है। ऐसा दशकों बाद हो रहा है जब इतनी शक्तिशाली बहुमत की सरकार जो संसद में धड़ाधड़ बिल पास कर रही है, कश्मीर जैसे मुद्दे को यूं ही एक बिल से सुलझाने का आत्मबल दिखा रही है, वही मोदी सरकार बिजनेस कॉन्फिडेंस बढ़ाने में असक्षम है। अब सवाल यह उठता है कि क्या यह पूर्णतः सरकार की जिम्मेदारी है। रंजन कहते हैं कि मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि इसकी पूरी जिम्मेवारी सरकार की है। इसका बड़ा हिस्सा सरकार का हो सकता है, लेकिन इसमें कई पहलू हैं।
ब्लॉक क्लोजर की जानकारी जब तक मिलती है, तब तक खुद को संभालने का वक्त निकल जाता है
इसका सबसे सटीक उदाहरण जमशेदपुर में देखने को मिलता है। जमशेदपुर जिसे टाटानगर भी कहा जाता है, वहाँ टाटा मोटर्स पिछले कई महीनों से ब्लॉक क्लोजर कर रहा है। खास बात यह है कि आदित्यपुर इंडस्ट्रियल एरिया जहां सैकड़ों कंपनी टाटा मोटर्स के उत्पादन पर निर्भर है, वे भी इस चक्र में फंस चुकी हैं। आदित्यपुर के एक इंडस्ट्री मालिक बताते हैं कि उन्हें इस तरह के ब्लॉक क्लोजर की जानकारी जब तक मिलती है तब तक उनके पास खुद को संभालने का समय नहीं होता। कल अगर बंदी होनी है तो आज खबर मिलती है। इससे हुए घाटे की भी कोई भरपाई नहीं करता। प्रबंधन में ऐसी चूक के कारण मंदी और बंदी के जाल चक्र में फंसी सैकड़ों कंपनियां बंद होने के कगार पर पहुंच गई हैं।
टाटा मोटर्स में डिवीजनल मैनेजर के पद से सेवानिवृत्त हुए एनसी मिश्रा जिन्हें इस सेक्टर में सालों का अनुभव है वे बताते हैं कि ब्लॉक क्लोजर या सरल भाषा मे कहें तो कंपनी बंदी सालों पहले फैक्ट्री में मशीन और बाकी सारे उपकरणों के मेंटेनेन्स के लिए किया जाता था, वो भी साल में एक बार। इसमें भी वर्कर यूनियन से पूरी बात होती थी और सटीक योजना के तहत ब्लॉक क्लोजर किया जाता था। आज जब गाड़ियों की मांग नहीं है तो हाल कुछ ज्यादा बुरा है। उनके हिसाब से आने वाले साल में ऐसी ही हालत रहने वाली है। ऐसे समय में जब सेल ही नहीं है तो अति उत्पादन के बाद और बाजार में डिमांड की कमी के कारण एक अंतर आता है। इस हालत में इंतजार के अलावा और कुछ करने को नहीं होता है।
इस मुसीबत से निकलने के लिए सरकार और इंडस्ट्री दोनों को तैयार रहना होगा
इससे निकलने के कई रास्ते हैं लेकिन उसके लिए सरकार और इंडस्ट्री दोनों को तैयार रहना होगा। हर व्यवसाय में एक रूखा अंत आता है, लेकिन उससे उभरने के लिए बाजार को दृष्टि देने वालों की जरूरत है। ऐसे निवेशक, पूंजीपति या बड़े कॉरपोरेट हेड जो आने वाले समय की मांग को समझकर नई तकनीक अपनाने या उपलब्ध तकनीक को उभारने में अपना वक्त दे सकते हैं। अलग-अलग कंपनियों में ब्लॉक क्लोजर की लड़ी जलने के बाद क्या कोई ऐसा रास्ता निकाला जा सकता है जिससे इस हानिकारक धुंए को हटाया जा सके।
क्या नए औजार बनाए जा सकते हैं या कामगारों को रिसर्च एंड डेवलपमेंट के किसी प्रोजेक्ट में लगाया जा सकता है। क्या ऑटोमोबाइल सेक्टर में बिजली से चलने वाली गाड़ियों पर शोध या कोई अन्य काम नहीं हो सकता। क्या जीवन में मोटर इंजन के दूसरे उपयोग पर नहीं सोचा जा सकता है। क्या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का कोई सकारात्मक उपयोग हो सकता है। अगर इन सवालों पर सोचा गया तो हम मोबाइल क्रांति के बाद ऑटो मोबाइल क्रांति में भी पूरी दुनिया के लिए बड़ा बाजार बन सकते हैं। लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो आम जनता अभिमन्यु और यह मंदी एक चक्रव्यूह साबित होगा।