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बुधवार, 5 जून 2019

'माया' की चाल समझ नहीं पाए अखिलेश, जल्दबाजी पड़ी भारी, बसपा का हर दांव सही बैठा

'माया' की चाल समझ नहीं पाए अखिलेश, जल्दबाजी पड़ी भारी, बसपा का हर दांव सही बैठा


बसपा सुप्रीमो मायावती के आवास पर मौजूद अखिलेश यादव। (फाइल फोटो)
बसपा सुप्रीमो मायावती के आवास पर मौजूद अखिलेश यादव। (फाइल फोटो) - फोटो : bharat rajneeti
अखिलेश यादव ने बसपा से गठबंधन के जिस दांव से भाजपा को चारो खाने चित करके अपना राजनीतिक कौशल दिखाने की सोची थी वह उसी में फंसकर चित हो गए। अखिलेश यादव ब्याज के चक्कर में पूंजी भी गवां बैठे। भाजपा को तो रोक नहीं पाए उल्टे घर की सीटें भी हार गए। ऊपर से बसपा सुप्रीमो ने यादव वोट पर उनकी पकड़ मजबूत न होने की तोहमत मढ़ते हुए अखिलेश यादव के नेतृत्व व सियासी क्षमता पर भी सवाल खड़ा कर दिया।
हालांकि सपा के राष्ट्रीय महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव ने यह कहते हुए बसपा को जवाब देने की कोशिश की है कि सपा के वोट ट्रांसफर न हुए होते तो बसपा 10 सीटें न जीत पाती, लेकिन अखिलेश को तो बसपा सुप्रीमो के सवालों से पार पाकर दिखाना ही होगा।

मायावती ने कहा है कि उनके निजी रिश्ते बने रहेंगे। आगे अखिलेश बेहतर कर पाए तो वह साथ काम करने की फिर सोचेंगी, लेकिन जिन्हें माया के राजनीतिक दांवपेंच का अंदाज है वह यह जानते हैं कि ऐसा नहीं होने वाला। उन्होंने सिर्फ यह साबित करने के लिए वह तो इस गठबंधन को चलाना चाहती थीं लेकिन अखिलेश उनकी बराबरी में कहीं नहीं ठहरते। इसलिए वह अलग हो रही हैं। मायावती के जवाब में प्रो. रामगोपाल व अखिलेश यादव के जैसे बयान आए हैं उससे भी अब इस गठबंधन के आगे बने रहने की उम्मीद नहीं है।

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इसमें कुछ आश्चर्यजनक नहीं है। शुरू से ही मायावती की राजनीति करने का अंदाज ही ऐसा रहा है। वह तभी तक किसी से सियासी रिश्ते निभाती है जब तक वह उनके समीकरणों के अनुसार चलता है। जैसे ही उन्हें यह लगता है कि अब उनका नुकसान होगा या अब कुछ हासिल होने वाला नहीं वह रिश्ता तोड़ने में एक क्षण नहीं लगाती है।

सिर्फ ‘संयोग’ भर नहीं 3 जून की तारीख ....

मायावती ने इस फैसले को सोच-समझकर 3 जून का दिन चुना या यह सिर्फ संयोग है। यह तो पता नहीं। पर, जिस तारीख को उन्होंने सपा और रालोद का साथ छोड़ अपने दम पर चुनाव लड़ने का फैसला किया, यह वही तारीख है जिस दिन 1995 में स्टेट गेस्ट हाउस कांड के चलते सपा से गठबंधन टूटने के बाद वह भाजपा के समर्थन से पहली बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं थीं।

यह बात इसलिए उल्लेखनीय है क्योंकि यही वह तारीख है जिसके बाद न सिर्फ इस प्रदेश ने बल्कि देश ने मायावती के सियासी दांवपेंच को देखा। इसी तारीख के बाद मायावती को केंद्रित करते हुए प्रदेश में सियासी दोस्ती करने और फिर उसे तोड़ देने की एक के बाद एक नई कहानियां सामने आईं।

मायावती ने दिया संदेश, अखिलेश अपरिपक्व व अदूरदर्शी

वरिष्ठ पत्रकार रतनमणि लाल कहते हैं कि इस पूरे घटनाक्रम में सिर्फ अखिलेश यादव का नुकसान हुआ है। फायदे में बसपा और मायावती रहीं। गठबंधन के चक्कर में अखिलेश साबित तो कुछ कर नहीं पाए उल्टे मायावती ने उनके अपरिपक्व और अदूरदर्शी होने का संदेश और दे दिया।

यह किसी विडंबना से कम नहीं है कि प्रदेश में अपने दम पर बड़ी राजनीतिक ताकत बनने वाले मुलायम सिंह यादव के पुत्र का हर सियासी कदम नुकसान ही कर रहा है। ऐसा लगता है कि उनकी जल्दबाजी ही उनकी सबसे बड़ी दुश्मन बन गई है। जिस तरह मायावती ने उन्हें अपने दांव से चारो खाने चित कर दिया है उससे उबरने में उन्हें अब काफी मेहनत करनी होगी।

उधर, मायावती ने पहले मैनपुरी जाकर यह कहने का आधार तलाश लिया कि वह न जातीं तो मुलायम सिंह अपना आखिरी चुनाव न जीत पाते। सभी को ध्यान होगा कि नेता जी खुद ही कह चुके हैं कि अब वह चुनाव नहीं लड़ेंगे। कन्नौज जाकर उन्होंने यह संदेश देने में कामयाबी हासिल कर ली कि  उनको चुनौती देने वाले परिवार के लोग अब उनके सामने समर्पण की मुद्रा में है।

'मायावती ने भांप लिया था अखिलेश में अपने दम पर सियासत करने की हिम्मत नहीं'

रतनमणि लाल की बात सही नजर आती है। कोई अखिलेश को सलाह दे रहा हो या वह अपने मन से फैसले ले रहे हैं, यह तो उन्हें ही पता होगा। पर, दो साल पहले जिस तरह उन्होंने पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल यादव को पार्टी में हाशिए पर डालने की कोशिश की उसने उनकी पार्टी के आधार वोट में कहीं न कहीं बिखराव पैदा किया है। जिससे वह समझने को तैयार नहीं हैं।

मायावती ने इस पूरे मामले में काफी सूझबूझ से काम किया और एक मंझा हुआ राजनेता होने का परिचय दिया। परिवार में बिखराव के बाद जब सपा ने कांग्रेस के साथ समझौता किया तभी मायावती ने यह भांप लिया था कि अखिलेश में मुलायम की तरह अपने दम पर सियासत करने की हिम्मत नहीं है।

विधानसभा चुनाव हारने के बाद भी मायावती बारीकी से परिस्थितियों को देखती रहीं। फिर उपचुनाव में उन्होंने मंझे हुए राजनीतिक की तरह सपा का साथ देकर यह संदेश दिया कि उनको साथ लिए बिना सपा, भाजपा को रोक नहीं सकती।

तीर निशाने पर पड़ा और सपा अध्यक्ष इसका एहसान जताने मायावती के यहां पहुंच गए। फिर मायावती ने अपनी शर्तों पर गठबंधन किया। अखिलेश को समर्पण मुद्रा में देख मायावती ने हर तरह से यह संदेश देने की कोशिश की कि उनके सबसे बड़े सियासी दुश्मन का उत्तराधिकारी उनकी शरण में है और वह इसमें कामयाब भी रहीं।

सपा के सामने कठिन चुनौती

सियासी गलियारों में चर्चा है कि मायावती के  बदले तेवरों के चलते सपा के संकट मोचक एक बार फिर चाचा-भतीजे में सुलह कराने के फार्मूले पर काम करने की सोच रहे हैं। पर, शिवपाल सिंह यादव की पार्टी के प्रवक्ता दीपक मिश्र जो कुछ कहते हैं उससे इसकी संभावनाएं धूमिल नजर आ रही हैं।

मिश्र का कहना है कि वे लोग काफी आगे निकल आए हैं। इसके लिए उन्हें अखिलेश यादव ने ही मजबूर किया। उनके अध्यक्ष शिवपाल यादव तो अपमान सहकर भी काफी दिनों तक यह कोशिश करते रहे कि सब कुछ ठीक हो जाए। पर, अखिलेश नहीं माने।

मायावती ने कुछ नहीं किया उन्होंने सिर्फ अखिलेश की असली क्षमता दुनिया के सामने रखी है। रही बात प्रगतिशील समाजवादी पार्टी की तो वह प्रगतिशील और प्रतिबद्ध प्रतिपक्ष देने को कटिबद्ध है।

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