विश्व पर्यावरण दिवस : अगले साल तक ताजमहल से भी ऊंचा होगा दिल्ली के गाजीपुर का कूड़े का ढेर
गाजीपुर लैंडफिल (फाइल फोटो) - फोटो : अमर उजाला
खास बातें
- 1984 में खुला था, 2002 में क्षमता पूरी हो चुकी थी, फिर भी नहीं किया गया बंद
- हर साल 10 मीटर ऊंचा होता है यह कूड़े का पहाड़, ताज महल से केवल 8 मीटर कम
- रोजाना यहां फेंका जाता है करीब 2000 टन कूड़ा, अक्सर लगती रहती है आग
- प्रदूशण, बदबू और बीमारियों से परेशान लोग यहां से पलायन करने को मजबूर
देश की राजधानी नई दिल्ली केवल 'दिल वालों' की जगह नहीं है, अगले साल यानी 2020 तक यहां के गाजीपुर लैंडफिल में लगा कूड़े का ढेर ताजमहल से भी ऊंचा हो जाएगा। भले ही हम इस बात पर ध्यान न दे रहे हों, लेकिन पर्यावरण संरक्षण के नाम पर केवल तमाम बातें कहने भर से ही इस समस्या का इलाज नहीं होने वाला, गाजीपुर लैंडफिल इसका साक्षात गवाह है। दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी का तमगा लिए हुए नई दिल्ली के माथे पर यह एक धब्बे की तरह है।
साल 1984 में खुला गाजीपुर लैंडफिल साल 2002 में ही अपनी क्षमता पूरी कर चुका था और इसे तब ही बंद कर देना चाहिए था, लेकिन पर्यावरण के प्रति हमारी 'जागरूकता' ने ऐसा होने नहीं दिया और इसका परिणाम हम देख ही रहे हैं। नई दिल्ली के पूर्वी हिस्से में स्थित गाजीपुर लैंडफिल के चारों ओर मंडराते बाज, आवारा जानवर यहां मंडराते रहते हैं। भयंकर बदबू और गंदगी का यह 'तोहफा' हमें कोई और देने नहीं आया, ये हमारा खुद को खुद से दिया गया उपहार है।
हर साल 10 मीटर ऊंचा होता है 'कूड़े का पहाड़'
पूर्वी दिल्ली के सुपरिटेंडेंट इंजीनियर अरुण कुमार के मुताबिक यह पहले की करीब 65 मीटर (213 फीट) ऊंचा हो चुका है। अगर इसी रफ्तार से यह ऊंचा होता रहा तो अगले साल तक यह ताज महल से भी ऊंचा हो जाएगा। बता दें कि ताजमहल करीब 73 मीटर ऊंचा है। करीब 40 फुटबॉल मैदानों का क्षेत्रफल घेरने वाला यह कूड़े का पहाड़ सालाना 10 मीटर तक ऊंचा होता है।
नाम न बताने की शर्त पर दिल्ली म्यूनिसिपल के एक अधिकारी ने बताया कि गाजीपुर लैंडफिल पर रोजाना करीब 2000 टन कूड़ा फेंका जाता है। साल 2018 में भारी बारिश के दौरान यहां का एक हिस्सा ढह गया था। इसमें दो लोगों की मौत भी हुई थी। इसके बाद यहां कूड़ा फेंकने पर रोक लगा दी गई थी, लेकिन कुछ दिन बाद ही यह प्रतिबंध हटाना पड़ा था क्योंकि अधिकारियों को कोई विकल्प नहीं मिल पाया था।
गाजीपुर लैंडफिल में कूड़े के ढेर से निकलने वाली मीथेन गैस के चलते अक्सर यहां आग लग जाती है, जिस पर काबू पाने में कई-कई बार तो कई दिन लग जाते हैं। सेंटर फॉर साइंस ऐंड इन्वायरनमेंट, नई दिल्ली में सीनियर रिसर्चर शांभवी शुक्ला का कहना है कि कूड़े से निकलने वाली मीथेन वातावरण में घुलने पर और जहरीली बन सकती है। नई दिल्ली में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की वरिष्ठ शोधार्थी शाम्भवी शुक्ला कहती हैं, 'कूड़े से निकलने वाली मीथेन गैस वातावरण में मिलने पर और घातक हो सकती है।'
पलायन करने को मजबूर लोग
पर्यावरण हितों के लिए काम करने वाले एक समूह चिंतन की अध्यक्ष चित्रा मुखर्जी का इस बारे में कहना है कि लगातार कूड़ा जमा होने से इसने हवा और भूमिगत जल को बेहद प्रदूषित कर दिया है इसलिए यहां डंपिंग रोके जाने की आवश्यकता है। आस-पास के इलाकों में रहने वाले लोगों का कहना है कि कई बार सांस लेना भी नामुमकिन सा हो जाता है। लोग बताते हैं कि जहरीली बदबू ने हमारा जीवन नरक जैसा बना दिया है, लोग अक्सर बीमार होते रहते हैं।
इसके विरोध में प्रदर्शन तो किए गए लेकिन वह कोई असर नहीं दिखा सके और अब कई लोग यह क्षेत्र ही छोड़ कर जाने लगे हैं। उनका कहना है कि यहां लैंडफिल के पास लगे रिसाइकिल सेंटर ने, जो कूड़े से एनर्जी (ऊर्जा) बनाता है, दिक्कतें और बढ़ाई हैं। इसमें कूड़े को जलाने से निकलने वाला धुआं भी जहरीला है। स्थानीय डॉक्टर कुमुद गुप्ता बताती हैं कि उनके पास रोजाना करीब 70 लोग आते हैं। इनमें छोटे बच्चे भी होते हैं। इन मरीजों में अधिकतर ऐसे होते हैं जो प्रदूषित हवा के कारण सांस और पेट की बीमारियों से पीड़ित होते हैं।
'हवा आने दो' मगर कैसे?
हाल ही में हुए एक अध्ययन के मुताबिक यह कूड़ा वहां से पांच किलोमीटर के दायरे में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। अध्ययन के मुताबिक इससे पेट और सांस संबंधित कई बीमारियों के साथ कैंसर जैसी घातक बीमारी भी हो सकती है। साल 2003 और 2017 के बीच सरकार द्वारा कराए गए एक सर्वे के मुताबिक दिल्ली में तीव्र श्वसन संक्रमण के कारण 981 लोगों की मौत हुई, जबकि 17 लाख लोग अन्य संक्रमण से पीड़ित थे।
कल हम पूरी दुनिया के साथ विश्व पर्यावरण दिवस मनाएंगे। इस बार इसकी थीम वायु प्रदूषण है। पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने मुंबई के भामला फाउंडेशन की सहायता से 'हवा आने दो' गीत तैयार किया है। गीत रचना और बाकी कार्य प्रशंसनीय तो हैं लेकिन तभी जब इनका स्पष्ट प्रभाव दिखाई दे। लोगों के साथ सरकार भी जागरूक हो। हमें सवाल उठाने चाहिए कि 2002 में अपनी क्षमता पूरी करने के बाद भी गाजीपुर लैंडफिल को बंद क्यों नहीं किया गया? समय रहते इसका विकल्प क्यों नहीं खोजा गया?